श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-धारणा[1]
श्रीरूपागुणों के चरणों का आश्रय न लेने के कारण जगत् में श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में अगणित आध्यात्मिक मनःकल्पनाएँ उत्पन्न होकर श्रीकृष्ण की आलोचना के नाम पर अत्यन्त ही श्रीकृष्ण-बहिर्मुखता के भाव बढ़ा रही है। श्रीचैतन्यदेव ने कहा है- ‘जेइ कृष्णतत्त्ववेत्ता, सेइ गुरु हय’ ‘जो श्रीकृष्ण के तत्त्व को जनता है वही गुरु हो सकता है, श्रीराय रामानन्द, श्रीस्वरूप दामोदर, श्रीरूप सनातन ? श्रीरघुनाथ और श्रीजीव आदि गोस्वामी महानुभावों द्वारा उपदिष्ट श्रीकृष्णतत्त्व की आलोचना करने पर आध्यातिमक मतवादियों की कल्पनाओं के कारखाने में श्रीकृष्ण के नाम पर बनी हुई, श्रीकृष्ण-गुणमाया की पुतलियों की श्रीकृष्ण-बहिर्मुख मनोहारी चमक-दमक की कीमत एक कानी कौड़ी से भी कम प्रतीत होने लगती है; कोई-कोई ग्राम्य औपन्यासिक और ग्राम्य कवि कहलाने वाले लोग श्रीकृष्णचरित्र और श्रीकृष्णलीला आदि लिखने जाकर श्रीकृष्ण के चरण-नख से करोड़ों योजन दूर श्रीकृष्ण की महामाया के द्वारा निर्मित अन्धकूप में जा पड़ते हैं। वे यह नहीं समझ सकते जैसे रावण चिच्छक्ति सीता को हरण नहीं कर सकता और माया-सीता के हरण को ही वास्तविक ‘सीता-हरण’ मान लेता है; जैसे मूर्ख मक्खी स्वच्छ कांच की शीशी के अनदर रखे हुए मधु को स्पर्श नहीं कर सकती और शीशी के बाहर बैठकर ही ‘मुझे मधु मिल गया है’ ऐसा मान लेती है वैसे ही जो श्रीरूपानुगों के चरणों का आश्रय नहीं लेते, सम्पूर्ण भाव से सर्वस्व समर्पण कर सर्वात्मा से श्रीरूपानुगों के पद-पंकज-पराग का सेवन नहीं करते, वे सब ग्राम्य कवि, ग्राम्य साहित्यिक, ग्राम्य औपन्यासिक, देशनेता, समाजनेता, विद्याभिमानी, जागतिक रूप-गुण-कुल-शील-पाण्डित्य में रेष्ठता के अभिमानी लोग, दुनियाँ के लोगों द्वारा चाहे जितनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लें परन्तु अप्राकृत श्रीकृष्णतत्त्व के सम्बन्ध में वे कुद भी हृंगम नहीं कर सकते; उनकी श्रीकृष्णतत्त्व-सम्बन्धिनी आलोचना केवल आंशिक और असम्यक ही नहीं होती परन्तु सम्पूर्ण रूप से विकृत और विपरीत होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पूजयचरण श्री गोस्वामी पाद के 'श्री कृष्ण धारणा' शीर्षक बहुत बड़े और विद्वत्तापूर्ण सुंदर लेख के ये पिछले दो तीन पृष्ठ हैं। इस लेख में श्रीगैडीय वैष्णवसम्प्रदायानुसार श्रीकृष्णा-तत्त्व का बड़ी विद्वत्ता के साथ प्रतिपादन किया गया था। खेद है कि लेख बहुत बड़ा होने के कारण तथा अन्य कुछ कारणों से पूरा प्रकाशित नहीं किया जा सका। इसके लिए मैं पूज्य श्रीगोस्वामी पाद से सविनय क्षमाप्रार्थी हूँ।--सम्पादक
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