श्रीकृष्णांक
पवित्र व्रज-लीला
भगवान श्रीकृष्ण के परम पुनीत प्रेम -चरित्र में व्रज -लीला मुख्य हैं। व्रज-लीला में अव्यक्त और परम दुर्लभ प्रेम ने व्यक्त रूप धारण किया था। जो प्रेम-पथ घोर स्वार्थान्धकार से परिच्छन्न था, वही उसके कारण दृश्यमान हो गया था। किसी अंशविशेष का अपने मूल-कारण से पृथक होकर किसी विजातीय वस्तु के साथ नाता जोड़ना ही असत्य, दुःखद, असत और अज्ञान है। परन्तु जब वह अंश अपनी इस भूल को समझ जाता है तो फिर उसके अन्दर अपने मूल- कारण के साथ मिलने की उत्कट लालसा उत्पन्न होती है और उसकी यह आभ्यन्तरिक लालसा ही यथार्थ प्रेम है जिसका स्वरूप सत्य, शिव और सुन्दर है। पर इस प्रेमराज्य की प्राप्ति के लिये कुछ मूल्य अवश्य चुकाना पड़ता है और वह मूल्य और कुछ नहीं, यह है- विजाति के संग का त्याग और अपने प्रेमपात्र के प्रीत्यर्थ अपने समस्त स्वार्थी को प्रेम -यज्ञ की पावन अग्नि में स्वाहा करके अपने-आपको उसकी सेवा के लिये सर्वथा समर्पित कर देना। सच्चिदानन्द परमात्मा का अंश जीवात्मा अपने परम कारण परमेश्वर को भूलकर असत् जड़ और दुःख मूल प्रकृति के भोग-विषयों के साथ तन्मय हो गया है जो परमार्थ की यथार्थ दृष्टि से प्रकृति की कृति होने के कारण असत्य, अयोग्य और अज्ञानमूलक हैं और इसीलिये परिणाम में दुःखदायी हैं। प्रत्येक जीवात्मा अपनी सांसारिक स्थिति से प्रसन्नता लाभ न कर यथार्थ एंव स्थायी आनन्द की खोज में है; पर उसका अज्ञान यह है कि वह उस आनन्द को प्रकृति के राज्य में ही ढूँढ़ता फिरता है, जहाँ उसका सर्वथा अभाव है। हाँ, इधर-उधर भटक -भटककर सद्गुरु और इष्ट की कृपा से जब जीवात्मा उपर्युक्त प्रेम-राज्य का मुल्य चुकाने को तैयार हो जाता है, तब वह उसका अधिकार बनता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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