श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान स्वयम
श्रीमद्भागवत का स्थान समस्त पुराणों में निस्सन्देह सर्वप्रथम है। भागवत के लिखे जाने का मूल कारण प्रायः सभी पर विदित है, भगवान व्यासदेव ने वेदों का विभाग किया, अन्यान्य पुराणों की एवं महाभारत की रचना की किन्तु यह सब करके भी उन्हे सन्तोष नहीं हुआ ,बेचैनी ज्यों-की त्यों बनी रहीं। तदनन्तर जब देवर्षि नारद के उपदेशानुसार उन्होंने श्रीमद्भागवत की रचना की, तब उन्हे शान्ति मिली और उन्होंने अनुभव किया कि जिस कार्य की पूर्ति के लिये मैं परिश्रम से मुक्त होकर विश्राम कर सकता हूँ। काव्य-कला की सुन्दर छटा की दृष्टि से अथवा सर्वोच्च ज्ञान और उच्चतम भक्ति का समन्वय करने वाले उसके गहन दार्शनिक सिद्धान्त की दृष्टि से श्रीमद्भागवत एक अप्रमेय ग्रन्थ है और समस्त पुराणों और उपपुराणों का राजा बना हुआ है, मानो उसे इसके लिये ईश्वरप्रदत्त अधिकार प्राप्त हो। अर्थोअयं ब्रह्मसूत्राणां भारतार्थविनिर्णय:। श्रीमद्धागवत ब्रह्यसुत्र और महाभारत का तात्पर्य बतलाती है, यह गायत्री का भाष्य है। घोर नास्तिक को छोड़कर कोई भी ऐसा व्यक्ति न होगा जिसे श्रीमद्धागवत को आद्योपान्त पढ़कर कोई लाभ प्रतीत न हो, जिसके आत्मा की सब ओर से यत्किंच्चित उन्नति न हो। यदि यह पूछा जाय कि श्रीमद्धागवत का प्राण- उसका महावाक्य क्या है? तो इसका उत्तर हमें ग्रन्थ के आरम्भ में ही इस आधे श्लोक मे मिल जाता है- 'एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।' यह सारे (नृरसिंह, वामन और परशुराम आदि अन्य स्वरूप) भगवान के अंश अथवा कला हैं, परन्तु श्री कृष्ण तो स्वयं भगवान ही हैं। यह सब भगवान के कुछ गुणों के व्यक्त स्वरूप थे जो किसी विशेष उद्देश्य को लेकर अवतीर्ण हुए थे, परन्तु भगवान श्री कृष्ण स्वयं पूर्ण परम पुरुष हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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