इधर प्रार्थना कर रहे थे, नर-रत्न अनेक ।
उधर दवकी मातुने, स्वप्न निहार एक ।।
भादों की कृष्ण अष्टमी थी, जो जन्माष्टमी कहाती है।
अब भी श्री कृष्ण-जयन्ती वह, घर-घर में मानी जाती है।।
बुधवार और था वृषभोदय, रजनी-पति उच्च क्षेत्र था ।
स्वागत को धर्म-स्थापक के, सुस्थिर नक्षत्र रोहिणी था ।।
उस काली और अर्ध-निशि में, जब प्राणी मात्र रहा था ।
तब जग के जागृत करने को, जगपति अवतरित हो रहा था ।।
बादल अपना दल बाँध-बाँध, नभ पर दुंदुभी बजाते थे ।
मानो- घनश्याम-आगमन का, घनश्याम सँदेश सुनाते थे ।।
कुछ जगती थी और कुछ सोती थी वह मात ।
देख उसने- ‘रात में, होने लगा प्रभात ।।
महा तेज से भर गये, फिर पृथ्वी आकाश ।
सूर्य चन्द्र को छोड़कर, आया एक प्रकाश ।।'
‘नीचे था लाला रक्तसागर, जिसमें सब सृष्टि धँस रही थी ।
ऊपर प्रकाश के पर्दे में, छोटी-सी मूर्ति हँस रही थी ।।'
पृथ्वी पर शोर हुआ- ‘मानो, सब दूनियाएँ टकराती हैं ।'
‘नभ पर यह सूना- ‘मधुर, मीठी, मुरली की तानें आती हैं ।।'
‘भूतल के जितने प्राणी थे, सब नभ- मण्डल पर जा पहुँचे।
नभ मण्डल वाले तारागण, भूतल के ऊपर आ पहुँचे ।।'
इस उथल-पुथल में, यह देखा- ‘सब प्रकृति नवीन हो चली है।
जग में यह नई लालिमा है, मालिमा विलीन हो चली है।।'
इतने में उस मूर्ति ने बढ़ा दिया आकार ।
वह बढ़ती थी; हो रहा था छोटा संसार ।।
बढ़ते-बढ़ते वह भव्य मूर्ति, इतनी विस्तीर्ण अपार हुई ।
सारा संसार उसी में था,वह भी सारा संसार हुई ।।
अब नहीं समझ में कुछ आया, क्योंकर यह दृश्य नवीन हुआ ।
वह मोर्ति विश्व में लीन हुई, या विश्व मूर्ति में लीन हुआ ।।'
इसी स्वप्न में देवकी-रही कई क्षण मौन ।
फिर कुछ गद्गद गिरा से, बोल उठी ‘तुम कौन’ ?
चतुर्भुजी बन आ गयी, अब तो सम्मुख मूर्ति।
शब्द हुआ- ‘कैसे करूँ, इस आज्ञा की पूर्ति ?
क्या खुद मैं कहूँ-कौन हूँ मैं ? हाँ- कह दूँगा- कहना होगा ।
आज्ञाकारी बन कर आया, तो आज्ञा में रहना होगा ।।
मैं वह हूँ- बाकी रहता है, मैं तू का झगड़ा जहाँ नहीं ।
मैं जहाँ नहीं- मैं वहाँ नहीं- मैं कहीं नहीं- मैं कहाँ नहीं ।।