श्रीकृष्णांक
दिखावटी भक्तिमार्ग और कर्मयोग
अपने मन को ढोंगमय कर देने का एक प्रत्यक्ष प्रमाण जो आजकल प्राय: देख जा रहा है, यह है कि जे कुछ लोग भक्ति संबंधी पदों को गाते-गाते आंसू बहाने लगते हैं, पर वे दूसरों का माल मारने या परस्त्रियों को ताकने में तनिक भी संकोच नहीं करते। हम स्वयं ऐसे कई व्यक्तियों को जानते हैं जिनका एक पट भक्ति के ढोंग की ओर खुला है और दूसरा घोर संसृति को ओर। उन्होंने अपने कर्मों को सदाचार से उतनी ही दूर रखा है जितनी दूर दोनों ध्रुव एक दूसरे से हैं। इस असामंजस्यका क्या ठिकाना ! श्रीकृष्ण को खूब ज्ञात था कि और वस्तुओं की भाँति मनुष्य मन भी ढाल की ओर ही िफसलता है। जो मन उचित कर्मों में लगा रहेगा उसे फिसलने का अवकाश तो मुफ्तखोरे पेटुओं को ही खूब मिलता है। यही सोचकर उन्होंने संसारी जीवों को कर्म का मार्ग दिखाकर मन, बुद्धि और अहंकार के परदों की आड़ में छिपे सच्चे गुरु का पता बताया है। यदि कहिये कि अभी हममें इस मार्ग पर चलने की पात्रता नहीं है तो इसका उत्तर यह है कि इस घोर आपत्ति के समय में ही यदि हममें पात्रता नहीं है तो फिर पात्रता किसी में भी और कभी भी न होगी और श्रीकृष्ण का सारा उपदेश शुष्क आदर्शवाद के घेरे में बन्द होकर रह जायगा । माधव-महिमा |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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