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श्रीकृष्णांक
परात्पर श्रीकृष्णावतार का प्रयोजनविमर्श
दीनदयालु भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरित्रावलोकन में सतत निमग्न रहने वाले, ‘अनन्याश्रिन्तयन्तो माम्’ इत्यादि वचन के अनुसार पराकाष्ठा की अनन्यता पर आरूढ़ हुए आश्रितों के लिये दीनबन्धु परम प्रभु को क्या- क्या नहीं करना पड़ता है? सब प्रकार की सेवा करना, दूत बनना, सारथि बनना और उसी समय गुरु बनकर उपदेश भी देना इत्यादि अनेक भाव से अपने आश्रितों को प्रसन्न रखना, यह उदार शिरोमणि नन्दनन्दन का ही काम है। आश्रित केवल शास्त्रीय-प्रक्रिया के अनुसार नवधा भक्ति से ही आपकी उपासना कर सकता है, परन्तु श्रीनन्दनन्दन तो अनेक विधि से अपने प्यारे भक्त की सेवा करते हैं। श्रीप्रभु ने स्वयं ही कहा है- ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ इसमें ‘भजाम्यहम्’पद से यह समझना चाहिये कि मैं अपने दासों की सेवा करता हुं। हाँ, इतना अवश्य है कि जिस प्रकार से मैं उसकी अभिलाषा पूरी करता हुँ। सच है, तभी तो श्रीभगवान को दूत और सारथी का वेष धारण करना पडा़ है, यद्यपि दूत सारथी आदि वेष में भी आपका स्वातन्त्रय है, परन्तु श्रीप्रभु तो कृपा से विह्लित होकर दामोदर-वेष भी स्वीकार कर चुके हैं, इससे अधिक और क्या हो सकता है ? ये सब क्या हैं- उस परम दयालु की परम निहैतु की कृपा का निदर्शन है। ऐसे परम दयालु प्रभु के अवतार- हेतु का विमर्श करते हुए अपने मानव जन्म का अलभ्य लाभ प्राप्त कर लेना भी श्रीप्रभु की कृपा अथवा तदीयों की कृपा के ही अधीन है। यद्यपि ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ इस आनन्द-वल्ली के वाक्यानुसार वेद सदा परब्रह्य आनन्दकन्द श्रीविहारीजी के एक आनन्दकन्द श्रीविहारीजी के एक आनन्द का भी अनुमान न कर सके, तथापि ‘गिरस्त्वदैकैकगुणावधीप्सया सदा स्थिता नोद्यमतोतिशेरते’ इस रसिक-वाणी के अनुसार वेद गुणों के वर्णन में लगे ही हुए हैं, इसी प्रकार मनुष्य मात्र को ‘यद्धा श्रमावधि यथामति वात्यशक्तः स्तौम्येवमेव’ इत्यादि वचनानुसार प्रभु के चरित्रादि आलोकन में सन्न रहना ही युक्ति-युक्त है। स्वयं आनन्दद्यन श्रीप्रभु ने अपने अवतार के तीन हेतु (प्रयोजन) बताये हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 8।4
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