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(लेखक – गोस्वामी श्रीलक्ष्मणाचार्यजी)
कहीं-कहीं यह शंका सुनने में आती है कि श्रीमद्भागवत व्यास कृत नहीं है, पर यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि जिन तर्कों के आधार पर यह शंका उपस्थित की जाती है, वे सब तर्क अन्यान्य पुराणों के अवलोकन के बाद सर्वथा निराधार सिद्ध होते हैं। उक्त प्रामाणिक श्रीवेदव्यास ने चार लाख श्लोकों वाले जिन अठारह पुराणों की रचना की, द्वादश स्कन्ध एवं अष्टादश सहस्त्र लोकयुक्ता भगवद्भक्ति प्रसारिणी, पतितोद्वारिणी भगवती भागवत भी उन्हीं के अन्तर्गत है। देवीभागवत में आया हुआ– ‘स्कन्धा द्वादश एवात्र कृष्णेन मुनिना कृता:’ यह श्लोकार्थ श्रीमद्भागवत को व्यासकृत ग्रन्थ भण्डार से निकाल बाहर कर उसके आसन पर देवी भागवत को आसीन करने में समर्थ नहीं हो सकता। कारण, देवी भागवत के पक्ष में जहाँ उसमें आया हुआ केवल वह श्लोकार्ध है वहाँ श्रीमद्भागवत के पक्ष में स्कन्दपुराण, नारदीयपुराण, पद्मपुराण आदि के अनेक प्रमाण हैं जो यह उद्घोषित करते हैं कि श्रीमद्भागवत के रचयिता सत्यवती सूनु वेदव्यास श्रीकृष्ण द्वैपायन ही हैं।
गरुड़ पुराण में विष्णुप्रतिपादक पुराणों को विष्णुपरक बतलाया गया है, इसलिये श्रीमद्भागवत विष्णुपरक तथा पद्मपुराण एवं स्वयं गरुड़ पुराण के अनुसार सात्त्विक पुराण होने के कारण व्यासकृत अष्टादश पुराणों के अन्तर्गत आ जाती है। कहा जाता है कि ‘पुराणं पंचलक्षणम्’ के अनुसार पुराण तो पांच लक्षण वाले ही होते हैं, पर यह ठीक नहीं है, क्योंकि श्रीमद्भागवत तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार पांच लक्षण वाला अल्पपुराण होता है और दस लक्षणों वाला महापुराण, जो कि (सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय) भागवत में मौजूद हैं। एक यह तर्क उपस्थित किया जाता है कि भागवत में लिखा है कि 17 पुराणों तथा महाभारत को भी बनाकर जब व्यासजी को संतोष नहीं हुआ तब उन्होंने नारदजी के आदेशानुसार इसकी रचना की, पर मत्स्यपुराण का कथन है कि 18 पुराणों की बनाकर व्यासजी ने भारतको बनाया।
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