श्रीकृष्णांक
चक्रपाणि
इस अपार पयोधि की अनन्त उत्ताल तरंगों में, अनिलानल में, नक्षत्रपूर्ण नीलाकाश में, मधुर ज्योत्स्नामय सुधाकर में, उद्दीप्त-प्रखर-ज्योतिमान् सूर्य में चक्रपाणि का दर्शन हो रहा है। अनन्त सौन्दर्य के अधिष्ठातृ देव भगवान कमललोचन शान्तरूपेण विराजमान है। भू:, भुव:, स्व: आदि सप्तलोकर महाप्रभु की एक अंगुली पर भ्रमित चक्र पर घूम रहे हैं। मृत्युलोकवासी अपनी भाषा में उसका पूर्ण वर्णन करने में असमर्थ हैं। चक्रधर प्रभु की इच्छामात्र से सृष्टि-चक्र, धर्म-चक्र, कर्म-चक्र तथा संहार चक्र घूम रहा है। इस प्रकार भगवान की इच्छामात्र से ही सब कुछ हो रहा है। उनकी रुद्र-दृष्टि से समुद्र खौलने लगते हैं, पृथ्वी कांप उठती है। नहीं, नहीं, सप्तलोक उत्तम हो उठते हैं और अनन्ताकाश में प्रलयाग्नि की ज्वालामय विद्युल्लहरें दौड़ जाती हैं। तब भगवान को सुदर्शन-चक्र धारण करने की क्या आवश्यकता ? भगवान तो धर्मोद्धारक हैं और अहिंसा है धर्म का स्वरूप, पुन: यह हिंसा का साधनचक्र प्रभु के हाथ में कैसा ? जबकि आज संसार के बड़े-बड़े मस्तिष्कों ने विश्व में शान्ति स्थापना करने के लिये नि:शस्त्रीकरण’ सिद्धान्त निकाला है, तब भगवान के हाथ का चक्र भी अलग क्यों न रखवा दिया जाय और उसकी जगह एक फाउण्टेन पेन क्यों न दे दिया जाय ? परन्तु इस विचार के लोग ऐसा कहते हुए प्राकृतिक गुणों को भूल जाते हैं। जबकि प्रकृति सत्-रज-तमत्रय-गुणात्मयी है तब केवल सात्त्विक शासन की कल्पना करना अव्यावहारिक और वैयक्तिक है। हां, कोई व्यक्ति या कुछ व्यक्ति सात्त्विक शासन में रह सकते हैं, परन्तु एक साम्राज्य के लिये यह मृगमरीचिकावत् है। हमें सात्त्विक शासन के दिव्य उदाहरण भारतवर्ष के पूर्वकाल में मिलते हैं। सत्यद्रष्टा तपोनिष्ठ ब्राह्मण-समाज उसी सात्त्विक शासन में रहता था। उसका जीवन-सांसारिक प्रलोभनों से दूर, कोलाहल से शून्य पवित्र प्रकृति की विहारस्थली निर्मित पर्ण-कुटरी में व्यतीत होता था। उन तपोवनों के निकट राजागण आखेट नहीं खेलते थे। वे नि:शस्त्र होकर उन सत्वपूजक तेजस्वी ब्राह्मणों की पर्णशालाओं पर उनके दर्शनार्थ जाते थे। वहाँ मृगछौने और सिंहशावक एक साथ खेलते थे। सिंह और गौ पास-पास विचरते थे। यह था भारतीय नि:शस्त्रीकरण का राज्य। इस राज्य की मूल भित्ति थी आध्यात्मिक-ज्योति की जाग्रति, अद्वैततत्व की अनुभूति और प्रेम-रूप महाप्रभु की दिव्योपासना। परन्तु भारतीय इतिहास में कहीं भी पता नहीं लगता कि उन तपोनिष्ठ ब्राह्मणों ने नि:शस्त्र होकर शासन करने के लिये कहा हो। हां, बुद्धकाल से केवल दार्शनिक विचारों पर अटक जाने से भारत के क्षात्र-धर्म-क्षात्र-शक्ति का विनाश होता आया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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