श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-गीतावली
कहा जाता हैं किसी दिन गोस्वामी तुलसीदास जी मथुरा के एक प्रसिद्ध मन्दिर में पधारे, समय भजन-पूजन का था, इसलिये विग्रह का बड़ा सुन्दर श्रृंगार किया गया था। गोस्वामी जी सुसज्जित मूर्ति देखकर विमुग्ध हो गये, उनके हृदय में प्रेमातिरेक से आनन्द की धारा बहने लगी, किन्तु उन्होंने उसके सामने सिर नहीं झुकाया, गद्द-कण्ठ से कहा- कहा कहौं छबि आज की भले बने हो नाथ । भगवान जन-मन रंजन हैं, उनका यह महावाक्य हैं ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ जो मुझको जिस रूप में प्राप्त करना चाहता हैं, मैं उसको उसी रूप में मिलता हूँ। अतएव उन्होंने उनकी इच्छा पूरी की, बात-की-बात में मुरलीधर धनुर्धर बन गये- मुरली मुकुट दुराय के नाथ भये रघुनाथ । मनोकामना पूर्ण होने पर गोस्वामी जी की आँखे खुलीं और उनकी हृत्तन्त्री के निनांदित होने पर यह मधुर-ध्वनि सुनायी दी- तुलसी मथुरा राम हैं, जो करि जानि दोय । मथुरा के दो अक्षर ‘म’ और ‘रा’ के बीच में ‘थु’ है। जब उनको सच्चा ज्ञान हुआ तो उनका यह कहना कि ’राम-कृष्ण में जो द्वैतबुद्धि रखता हैं उसके मुंह में ‘थु’ स्वाभाविक हैं। किन्तु सबसे पहले यह बात गोस्वामी जी ही पर घटती हैं, क्योंकि द्वैतबुद्धि उन्हीं में उत्पन्न हुई। इसलिये अनन्यता के दम भरने वालों की कही, इस दन्तकथा पर मेरा विश्वास नहीं। अनन्यता निन्दनीय नहीं, उपासना का यह प्रधान अंग हैं। जिसकी बुद्धि निश्चयात्मिका नहीं होती, वहीं एक को छोड़कर अनेक के जंजाल में पड़ा रहता हैं। नाना देवताओं की उपासना में रत रहना, कभी भूत को पूजने लगना, कभी पिशाच को, इत्यादि बुद्धि की अस्थिरता का सूचक हैं। इसलिये भक्त के लिये उच्चकोटि की साधना अनन्यता ही हैं। क्योंकि- सब आयो इअस एक मैं डार पात फल फूल । जो ‘एकमेवाद्वितीयम्’ का मर्म जानता हैं, उसका अनन्य होना स्वाभाविक हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा की विभूतियों की उपेक्षा की जावे। अनन्य होकर अपने इष्टदेव की सत्ता को ही समस्त विभूतियों में देखना और यथोचित सबकी मर्यादा की रक्षा करना अनन्यता का बाधक नहीं, क्योंकि- आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरे । आकाश से गिरा हुआ जल जैसे समुद्र को जाता हैं, उसी प्रकार सब देवताओं को किया गया प्रणाम ईश्वर को ही प्राप्त होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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