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श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण की गीता और दर्शनशास्त्रों का समन्वय
1. उपनिषदों को गौ की, भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल की और गीता को दुग्धामृत की उपमा दी गयी है। इसमें सन्देह नहीं, उपनिषद- जैसे रहस्यशास्त्रर-अतिनिगूढ़ रहस्य शास्त्रों के मर्म का इतनी संक्षिप्त और सुन्दर रीति से कदाचित ही किसी अन्य ग्रन्थ में वर्णन किया हो। भगवान श्रीकृष्णजी के उपदेश की महिता जगद्विख्यात है, इन्हीं के स्फूर्तिजनक वाक्यों से ‘भारत’ अर्थात अर्जुन का विषाद योग जाता रहा, वह हर्म योग के महत्त्व को समझ सका, स्वकर्तव्य का पालन कर सका और अवसर प्राप्त युद्ध में सोत्साह प्रवृत्त हो सका; किन्तु इससे भगवान व्यास की महत्ता कम नहीं हो जाती। गीता को अर्थात भगवान श्रीकृष्ण के मौखिक उपदेश को स्फूर्ति जनक काव्य का रूप देकर श्रीकृष्ण, अर्जुन, कौरव, पाण्डव और महाभारत एवं इनके साथ ही भारतीय उच्च नैतिक साहित्य को अमर कर रखने का काम व्यास भगवान का ही था। यदि व्यासजी इस उपदेश को इस प्रकार छन्दोबद्ध न करते तो सम्भवतः श्रीकृष्ण के उपदेश की इतनी महिमा न होती। फिर उस दशा में ‘महाभारत’ की महत्ता और भारवत्ता को कौन कहता, कौन मानता अथवा स्वीकार करता ? आज हम केवल ‘गीता और दर्शन शास्त्रत’ के विषय में संक्षिप्त रीति पर कुछ लिखेंगे। ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् । 13।4
इस एक ही श्लोक में ‘छन्दोभिः’ से छनदःशास्त्रथ, ‘ब्रह्मसूत्रपदैः’ से वेदान्त शास्त्रस, ‘हेतुमन्दि’ से न्याय शास्त्र और हेतु शास्त्र कारों का पता चलता है। (4)अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । 2।28
नेहाभिक्रमनाशोअस्ति प्रत्येवायो न विद्यते । 2।40
व्यवसायात्मिका बुद्धि:................ 2।41
भूरिरापोअनलो वायु:................ 7।4
इत्यादि से वैशेषिक दर्शन के मूल तत्त्व विदित होते हैं। गीता का तेरहवाँ अध्याय अधिकतर वैशेषिक- सिद्धान्तों से परिपूर्ण है। (5)एषा तेअभिहिता सांख्ये बुद्धिएयोगे त्विमां श्रृणु । 2।39
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: ।। 3।28
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदंति न पण्डिता: । 5।4
यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरेपि गम्यते ।। 5।5
इत्यादि से सांख्ययोग का एकत्व प्रतिपादन किया गया है और स्थान-स्थान पर सुन्दर रीति से इनके एकत्व का बोध कराया गया है। समन्वय की रीति इतनी सुन्दर है कि शायद ही कोई उसका अनुकरण कर सके। |