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(लेखक- पं. श्रीकृष्णदत्त जी भारद्वाज शास्त्री, आचार्य, बी. ए.)
उपनिषद का ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्रन्नन्यो अभिचाकशीति’ यह मंत्र भगवान का जीव के साथ सख्य संबंध स्पष्ट उदघोषित कर रहा है। श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ स्कन्ध का ‘जानसि किं सखायं मां येनागे विचचर्थ ह। हंसावहं च त्वं चार्य सखायौ मानसायनौ, अभूतरामन्तरावौक: सहस्त्रपरिवत्सरान्’ यह वचन भी उसी भाव का पोषक है। श्री भगवान केवल सखा ही हों, ऐसा नहीं समझना चाहिये। वे जीव के माता, पिता, बन्धु सभी कुछ हैं। जिस भाव से जीव उनका भजन करता है वे भी उसको उसी भाव से प्राप्त होते हैं। अतएव भागवत में एक वचन है ‘यद्यद्धिया त उरुगाय विभावयन्ति तत्तद्वपु: प्रणयसे सदनुग्रहाय’ गीता में कहा गया है ‘ये यथा मां प्रपद्येन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
धराधाम पर अवर्तीण होकर भगवान श्रीकृष्णचंद्र की हुई अनन्त लीलाओं में से जो उनका सख्यभाव प्रकट होता है उसका सर्वांगपूर्ण वर्णन करना मानव शक्ति के अधिकार से बाहर की बात है। तथापि अपने प्रसिद्ध सुहृदवर महारथी अर्जुन एवं सहपाठी सुदामा के साथ उन्होंने जो आदर्श व्यवहार किया, उसकी कुछ चर्चा नीचे की जाती है।
लोकाभिरामा, सर्वातिशयिनी, सम्पदा से संवृता, पुण्यपुरी द्वारका के अनन्त सुख को त्यागकर, शस्त्रास्त्रवीचिमालाकुलयुद्ध पारावार के मध्य में डगमगाती हुई स्यन्दन नौका में आरुढ, आगामी भय की आशंका से विषण्ण, पार्थ को श्रीकृष्ण कर्णधार ने जिस प्रकार गीतामृत पिलाते-पिलाते पार लगा दिया, वह सभी चरित्र उनके पुनीत आदर्श सख्य का परिचायक है। पाण्डव प्रवर अर्जुन पर उनके जीवन में कई बार कठिनाइयां पड़ीं और श्रीकृष्णजी ने भी अनेक बार सहायता करके ‘आपत्सु मित्रं जानीयात’ इस वाक्य को चरितार्थ किया। परन्तु कुरुक्षेत्र का भीषण समरांगण घोरतम आपत्ति थी और यहाँ ही उन प्रियतन सखाने समस्त संसार मनोमोहनरुप में अर्थात ज्ञानोपदेश द्वारा, अर्जुन की रक्षा की क्या इससे भगवान का आदर्श सख्य सिद्ध नहीं होता ? श्रीभगवान के विभ्राट विराटरुप को देखकर सख्यभाव का भक्त भगवान की अर्णनीय महिमा से मुगध हो अपने को उनका नम्रातिनम्र दासानुदास समझने लगा और ‘हे सखा’ इस वाक्य के द्वारा श्रीकृष्ण को संबोधन करना उनका अपमान और अपना अभिमान मानने लगा। इस भाव से प्रेरित होकर वह श्रीकृष्ण के बारम्बार क्षमा की याचना करने लगा। परन्तु आदर्श सखाने अर्जुन को अधिक समय तक व्याकुल और वेपमान अवस्था में न रखा। उन्होंने तत्काल त्रिलोकसुन्दर सौम्य वपु धारण कर उसको सान्त्वना दी। भला श्रीकृष्णचंद्र अपने सखा के भय को देख सकते थे ? उन्होंने दिखा दिया कि ऐश्वर्य का तारतम्य दो मित्रों के सख्य का विरोधी नहीं हो सकता। प्रेम ही मित्रता की कसौटी है।
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