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(लेखक – श्रीअमूल्यचरण विद्याभूषण, प्रोफेसर विद्यासागर कॉलेज)
श्रीराधा के सम्बन्ध में आलोचना करते समय सबसे पहले वैष्णवों के राधातत्त्व के अनुसार ही आलोचना करनी पड़ती है। वायुपुराण आदि में राधा की जैसी आलोचना है, इस लेख में हम उसका अनुसरण न कर वैष्णवोचित भाव से ही कुछ चर्चा करते हैं। राधातत्व के इतिहास के सम्बन्ध में किसी दूसरे निबन्ध में आलोचना की जा सकती है। प्राचीन वैष्णवों के श्रीकृष्ण ही एकमात्र आराध्य थे, वे श्रीकृष्ण को ही अपना सर्वस्व मानते थे। वे जानते थे कि श्रीकृष्ण ही परम पुरुष और आनन्दघन हैं। आनन्द ही उनका स्वरूप है। वे ही मूर्तिमान आनन्द हैं। श्रीकृष्ण का विश्लेषण कर वे उनमें भीतर-बाहर सर्वत्र एक आनन्द के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख पाते थे। परन्तु बाद के वैष्णवों ने एक अपूर्व आविष्कार किया। अद्वैत सत्-चित्-आनन्द स्वरूप वस्तु ही परमतत्व है– प्राचीन वैष्णवों की भाँति परवर्ती सम्प्रदाय ने भी यह बात तो मानी। उन्होंने केवल इतना ही विशेष समझा कि ज्ञानी लोग इस परमतत्व को सत्ताप्रधान ब्रह्म बतलाते हैं, योगीगण चैतन्यप्रधान परमात्मा मानकर उनका ध्यान करते हैं और प्रेमिकगण आनन्द प्रधान विग्रहवान् भगवान जानकर उनकी सेवा करते हैं। सभी अपनी अपनी प्रवृत्ति और अधिकार के अनुसार जो कुछ करते हैं, वही उनके लिये उपयोगी है, किन्तु ‘आनन्दघन भगवान’ की उपासना तो जीवमात्र के लिये ही सहज-स्वाभाविक है, जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त जीवमात्र प्रतिक्षण कृष्णानुसन्धन ही करते हैं। मूर्तिमान आनन्द ही कृष्ण हैं।
जीव आनन्द के बिना वह बच नहीं सकता। परन्तु आनन्द किसे कहते हैं, आनन्द कहाँ है और वह आनन्द कैसे मिल सकता है, इस बात को जीव नहीं जानता, इसीलिये वह स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति आदि पार्थिव पदार्थों में आनन्द को ढूँढता है। यदि कोई मूर्तिमान आनन्द स्वरूप श्रीकृष्यण को जान ले तो फिर वह स्त्री-पुत्रादि को नहीं चाहेगा। जीव के अन्दर ऐसी बलवती आनन्द–लिप्सा क्यों है, इसी बात को समझने के लिये गौडीय वैष्णवों ने जीव के स्वरूप की आलोचना करते हुए राधा-स्वरूप का आविष्कार किया है। वे कहते हैं जैसे एक ही सत्, चित्, आनन्दस्वरूप परमतत्व सत्ता प्रधान होने से ब्रह्म, चैतन्यप्रधान होने से परमात्मा और आनन्द प्रधान होने से भगवान कहलाता है, वैसे ही सत्, चित् और आनन्द स्वरूप वस्तु प्रेमप्रधान होने से शुद्ध जीव कहलाती है। सत्तास्वरूप वस्तु निर्विशेष भाव से रह सकती है और है भी, और चैतन्यस्वरूप वस्तु आप ही परिस्फुट है, इस दशा में आनन्द का होना न होना समान ही हो जाता है।
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