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(लेखक – श्रीवेणुगोपालजी आचार्य)
1. हे कृष्ण ! हे लीलाविहारी कृष्ण ! सुना है, तुमने एक बार पृथ्वी पर अवतार लेकर अलौकिक लीला की थी। अपने छबीले रूप, मोहक संगीत और कलित क्रीड़ा के द्वारा सबके चित्त को आकर्षित कर लिया था। वे सब आनन्द–मग्न हो, अपना सब काम-काज जहाँ का तहां छोड़ तुम्हारे सहगामी बन गये थे। क्यों मोहन ! क्या यह सब सच है ? तो फिर दयानिधान, एक बार फिर, हल लोगों के बीच में आकर हमें सनाथ क्यों नहीं करते ? कहाँ गया अब वह तुम्हारा प्रेम, माधव ? तुम्हारे लिये तरस रहा हूँ। एक बार– बस, एक बार तो अपने आनन्द भरे खेल की झांकी से इन तृषित नेत्रों को तृप्त करो, भगवन् ! ‘प्यारे ! क्यों हैरान हो, देखो न, मैं गया कहाँ हूँ ? मैं तो तुम्हारे पास ही हूँ। तुम्हारे भीतर-बाहर, चारों ओर, घट-घट में और पट-पट में अपने असंख्य जड़-चेतन चिर सहचरों के साथ, नाना प्रकार के नित्यलीला किया करता हूँ। तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करने की चेष्टा करता हूँ, पर तुम मुझे देखकर भी नहीं देख पाते। कारण, हम लोग आंख-मिचौनी खेल रहे हैं’।
2. ‘श्याम सुन्दर ! तुम्हारी बात बड़ी अच्छी मालूम होती है। सुनते ही हृदय आशा से भर गया, पर वह है एक गूढ प्रहेलिका, जिसका अर्थ लाख सिर मारने पर भी समझ में नहीं आता। रहस्मय ! तुम्हीं दयाकर उसका रहस्योद्घाटन करो। मुझे बतलाओं कि यह तुम्हारा भीतर-बाहर और सर्वत्र का सनातन खेल क्या बला, नटनागर ?’ एक बार की बात है। तुम बड़ी विषम परिस्थिति में पड़ गये– एकाएक बहुत बड़ा नुकसान हो गया, मेहनत बेकार हुई, इज्जत चली गयी, कोई प्यारा बिछुड़ गया, और तुम जी हारकर बैठे रहे। तुम्हारा चेहरा शोक से मुरझा गया। और तुम्हारी यह अवस्था इसलिये हुई कि तुम मेरी सनातन लीला को भूल गये। थोड़ी देर में एक शिशु आया और तुम्हारी गोद में बैठ गया। उनके चेहरे पर निष्कपटता, विश्वास, निर्द्वन्द्वता और हलकी सी मुस्कान की आभा झलक रही थी। तुम उसे देखकर अपना दु:ख-सन्ताप भूल गये। पर मित्र ! यह सब क्या था ? उस बालक के रूप में मैं ही तुम्हारे सामने आकर उपस्थित हुआ था और मैंने ही तुम्हें अपनी लीला का स्मरण दिलाया था। तुम्हारे चेहरे पर मुसकुराहट दौड़ गयी और तुम्हारा हृदय आनन्द से उछलने लगा। मैंने तुम्हें स्पर्श किया और और आशा दिलायी, पर तुम मुझे देखकर भी नहीं देख सके। मैंने ताली बजायी, और मैं वहाँ से खिसकते-खिसकते चला गया, क्योंकि हम आंख-मिचौनी खेल रहे थे।
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