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(लेखक-प्रो. श्रीफीरोज कावसजी दावर, एम. ए., एल.-एल. बी.)
निस्सन्देह महान पुरुष अपने युग के आदर्श होते हैं। उनके अन्दर या तो उस सारे युग के मुख्य-प्रमुख्य गुणों का समन्वय होता है अथवा वे युग सन्धि में उत्पन्न होकर आने वाले युग का आदर्श दिखा जाते हैं। वे स्थूल-बुद्धि एवं देर से फल देने वाले युक्ति के मार्ग का अनुसरण न कर ईश्वर-प्रेरित अन्त र्ज्ञान (intuition) से काम लेते हैं, जिसके प्रभाव से वे अपने से न्यून बुद्धि वाले सम-सामयिक पुरुषों से शीघ्र ही बहुत आगे बढ़ जाते हैं। महान कहे जाते हैं। किन्तु इस नियम में (यदि इसे नियम माना जाय) बहुत आगे बढ़े हुए होते हैं, वे चरित्र-भ्रष्ट होते हैं। उन्हें यदि समाज सुधार, युद्ध अथवा शासन-सम्बन्धी काम करना पड़ता है तो वे उसमें कृत कार्य नहीं होते। महात्मा ईसा इतिहास के बहुमूल्य रत्नों में से हैं, जिनके लिये हम लोगों को सदा आदर सूचक विशेषणों के प्रयोग करने की इच्छा होती है, परन्तु क्या वे रणभूमि में जाकर युद्ध कर सकते थे अथवा किसी राज्य के शासन की बागडोर हाथ में ले सकते थे या राजदूत का कार्य कर सकते थे ?
हमारी यह धारण है कि समस्त संसार के इतिहास में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जितना श्रीकृष्ण का था। उन्होंने अपने कीर्तिमय जीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जो- जो लोकोत्तर कार्य किये, वे गत पाँच सहस्र वर्षों से अटक से लेकर कटकतक और काश्मीर से कन्याकुमारी तक ही नहीं, प्रत्युत सारे जगत के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में गाये जाते हैं। बालक, विद्यार्थी, मित्र, प्रेमी, योद्धा, शासक, राजदूत, तत्त्वदर्शी, योगेश्वर, सिद्ध पुरुष तथा ईश्वर के पूर्णावतार आदि सारे ही रूपों में उनके जीवन की अद्वितीय आदि सारे ही रूपों में उनके जीवन की अद्वितीय महानता दृष्टि गोचर होती है। किसी कवि का कथन है कि ‘कीर्तिमय जीवन की एक कार्य-संकुल घड़ी भी कीर्ति रहित जीवन के एक युग के तुल्य है।‘फिर श्रीकृष्ण ने तो एक सौ पचीस वर्ष की लम्बी एवं पूर्ण आयु प्राप्त की और उसके प्रत्येक घण्टे में उन्होंने ऐसे-ऐसे काम किये जिनसे उनका नाम तथा यश सदा के लिये अमर हो गया !
पर अन्य समस्त महापुरुषों की भाँति श्रीकृष्ण को भी अपनी महानता का दण्ड भोगना पडा। आज उनके सम्बन्ध में इतनी अत्युक्ति पूर्ण आख्यायिकाएँ तथा दन्त कथाएँ ग्रथित हो गयी हैं।
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