श्रीकृष्णांक
कृष्णावतार पर वैज्ञानिक दृष्टि
निर्विकार, शुद्ध एकरस में विकारी, परिच्छिन्न, अनेक बल आये कहाँ से- इत्यादि बातें बुद्ध के द्वारा अगम्य हैं- इसलिये इस बल वा माया को अनिर्वचनीय कहना पड़ता है। माया द्वारा सीमाबद्ध होने पर, माया विशिष्ट रस का नाम ‘अव्यय पुरुष’ होता है। अव्यय पुरुष मे यद्यपि बल द्वारा परिच्छेद हो गया है, किन्तु ‘ग्रन्थि’ नहीं है, बल इसे बन्धन में न ले सका, इसलिये यह सृष्टि का उपादान वा निमित्त नहीं बनता, केवल आलम्बन मात्र रहता है। विकारात्मक सृष्टि से यह परे ही रहता है, इसलिये इसे परपुरुष वा पुरुषोत्तम कहते हैं। अर्वाचीन वेदान्त-ग्रन्थों में इसे ‘मायाशबलित ब्रह्म’ कहा है, और पन्चदशीकार ने संसाररूपी चित्र के लिये घट्टित (चावल आदि के द्वारा चिकनाया हुआ) पट इसे बताया है। इसमें दो भाग हैं, जिन्हें रस और बल, ज्ञान और कर्म वा अमृत मृत्यु कह सकते हैं। इसी अव्यय पुरुष का वर्णन यह श्रुति करती है-
'न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:' इत्यादि भगवद्गीता-वचन का भी यही प्रतिपाद्य है। बल के द्वारा परिच्छेद होने पर परिच्छिन्न वस्तु का एक केन्द्र भी अवश्य बन जाता है। उस केन्द्र में इच्छाशक्ति उत्पन्न होती है, जिसे श्रुति ने ‘एकोऽहं बहु स्याम्’ (मैं एक ही बहुत रूपों में प्रकट होऊँ, सृष्टि करूँ) इन शब्दों में कहा है, इस इच्छा शक्ति के द्वारा मायाबल पर काम, तप और श्रम नाम के तीन बल और उत्पन्न होते हैं, जिन्हें श्रुति ने ‘सोऽकामयत’ ‘सोऽश्राम्यत्’ ‘सतपोऽतप्यत’ इन शब्दों में स्थान-स्थान पर प्रकट किया है। यों बल पर[2] बल की चित्ति (चिनाई) आरम्भ होती है। यद्यपि प्रत्येक बल क्षणिक है, एक बल दूसरे का आधार बन नहीं सकता, किन्तु स्थिर रस के आश्रय से धारावाही होकर वह स्थिर सा बन जाता है, और यों बलों पर बलों की चित्ति सम्भव हो जाती है। बल पर बल के संसर्ग का नाम सृष्टि है। संसृष्टि में से ‘सं’ का लोप कर देने पर ‘सृष्टि’ शब्द बनता है। इस चित्ति के द्वारा निष्कल अव्यय पुरुष में पाँच कलाएँ प्रकट हो जाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्वेताश्वतर
- ↑ जैसे मकान बनाने में ईंट पर ईंट या पत्थर पर पत्थर रखकर चिति (चिनाई) की जाती है, उसी प्रकार बल पर बल की भी चिति होती है ऊपर नीचे जमाना ही 'चिति' शब्द का अर्थ है।-लेखक
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