श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
साधक का सिद्धदेहप्रिय महोदय! सादर सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। साधन क्षेत्र में सिद्धदेह विषयक यह आपका प्रश्न रागानुगा भक्ति के एक अति उच्च साधन का संकेत करता है। वास्तव में सब प्रश्न गोपनीय दिव्य साधना से सम्बन्ध रखते हैं। साधक देह और सिद्ध देह.... इस प्रकार सेवा के लिये दो देह माने गये हैं। हमारे पांचभौतिक स्थूल देह को ही साधना में संलग्र होने पर साधक देह कहते हैं। इसके परे सिद्धदेह है, जिसकी पहले साधक देह वाले महानुभाव भावना करते हैं और उस भावना सिद्ध देह के द्वारा भगवान की सेवा किया करते हैं। पर जिनके हृदय में यथार्थ रति की उत्पत्ति हो गयी है, उनको सिद्ध देह की भावना नहीं करनी पड़ती, उसकी स्वयं स्फूर्ति हुआ करती है और वे परम सौभाग्यवान् साधक उक्त सिद्ध देह के द्वारा श्रीराधामाधव की मधुरतम निकुंज सेवा में नियुक्त रहकर नित्य निरतिशय परमानन्दाम्बुधि में निमग्र रहते हैं। यह सिद्ध देह ने तो अस्थि-मांस-रक्तमय जड देह है और न सांख्य प्रोक्त सूक्ष्म और कारण देह ही है। यह है दिव्यानन्दचिन्मय- रसप्रतिभावित नित्यशुद्ध सुचारु समुज्जवल परम सुन्दरतम सच्चिदानन्दरसमय विग्रह। वैष्णवसाधना के क्षेत्र में इस सच्चिदानन्दरसमयी मूर्ति को ‘मजंरी’ कहते हैं। ये सखियों की अनुमति के अनुसार श्रीराधामाधव की सेवा में नियुक्त रहती और परमानन्द का अनुभव करी हैं। इनका यह देह नित्य सुन्दर, नित्य मधुर, नित्य नव-सुषमासम्पन्न और नित्यसमुज्जल रहता है। इन पर देश-काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस मार्ग की साधना की परिपक्क स्थिति में इस सिद्धदेह की स्वयमेव स्फूर्ति हुआ करती है। पाचंभौतिक देह छूट जाती है, पर ये सच्चिदानन्द-रस-विग्रहमयी व्रजसुन्दरियाँ भगवान के प्रेमधाम में स्फूर्ति प्राप्त करके श्रीयुगलस्वरूप की सेवा में नित्य नियुक्त रहती हैं। |
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