श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकारप्रेम के भी तीन भाव बतलाये गये हैं - ‘मधुवत्’, ‘घृतवत्’ और ‘लाक्षावत्’। ‘मधु’ भाव का प्रेम वह है, जो मधु की भाँति स्वाभाविक ही मधुर है, जिसमें स्नेह, आदर, सम्मान, सेवा आदि अन्य किसी भाव का न तो जरा-सा मिश्रण ही है और न आवश्यकता ही है, जो नित्य-निरन्तर अपने ही अनन्य भाव में आप ही प्रवाहित है। ये प्रेम होता है केवल प्रेम के लिये। इसमें प्रेमास्पद का सुख ही अपना परम सुख होता है। अपना कोई भिन्न सुख रहता ही नहीं। इस प्रेम में प्रेमास्पद का स्वार्थ ही अपना एकमात्र स्वार्थ होता है। पूर्ण आत्मसमर्पण ही इसका रहस्य है और नित्यवर्धनशीलता ही इसका स्वभाव है। यह वस्तुतः अनिर्वचनीय भाव है।
‘घृत’ भाव का प्रेम वह है, जिसमें पूर्ण स्वाद और माधुर्य उत्पन्न करने के लिये घृत में नमक, चीनी आदि की भाँति अन्य रसों के मिश्रण की आवश्यकता है। साथ ही, घृत जैसे सर्दी पाकर कड़ा हो जाता है और गरमी पाकर पिघल जाता है, वैसे ही विविध भावों के सम्मिश्रण से इस प्रेम के भी रंग बदलते रहते हैं। यह प्रेमास्पद के द्वारा आदर-सम्मान पाकर बढ़ता है और उपेक्षा-घृणा पाकर मर-सा जाता है। इसमें प्रेमी अपने प्रेमास्पद को सुखी तो बनाना चाहता है, परंतु स्वयं भी उसके द्वारा विविध भावों में सुख की आकांक्षा रखता है। यदि प्रेमास्पद से आदर-सम्मान नहीं मिलता तो यह प्रेम घट जाता है। इस प्रेम में स्वार्थ का सर्वथा अभाव नहीं है। न इसमें पूर्ण समर्पण ही है। ‘लाक्षा’ भाव का प्रेम वह है, जो चपड़े के समान स्वाभाविक ही रसहीन और कठोर होने पर भी जैसे चपड़ा अग्नि का स्पर्श पाकर पिघल जाता है, वैसे ही प्रेमास्पद को देखकर उदय होता है। प्रेमास्पद के द्वारा भोग-सुख प्राप्त करना ही इसका लक्ष्य होता है। श्रीराधिकाजी के प्रेम को ‘मधुवत्’ चन्द्रावलीजी आदि के प्रेम को ‘घुतवत्’ और कुब्जा आदि के प्रेम को ‘लाक्षावत्’ कह सकते हैं। इसी प्रकार राग के भी तीन प्रकार माने गये हैं - ‘मन्जिष्ठा, ‘कुसुमिका’ और ‘शिरीषा’। ‘मन्जिष्ठा’ नामक लाल रंग की चमकीली बेल का रंग जैसे धोने पर या अन्य किसी प्रकार से नष्ट नहीं होता और अपनी चमक के लिये किसी दूसरे वर्ण की भी अपेक्षा नहीं रखता, उसी प्रकार ‘मन्जिष्ठा नामक’ राग भी निरन्तर स्वभाव से ही चमकता और बढ़ता रहता है। यह राग श्रीराधा-माधक के अंदर नित्य प्रतिष्ठित है। यह राग किसी भी भाव के द्वारा विकार को प्राप्त नहीं होता। प्रेमोत्पादन के लिये इसमें किसी दूसरे हेतु की आवश्यकता नहीं होती। यह अपने-आप ही उदय होता है और बिना किसी हेतु के आप ही निरन्तर बढ़ता रहता है। |
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