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कामनाश का उपाय और काम तथा प्रेम का भेद
- ‘काम’ सृष्टि का मूल[1] काम है सहज जीव का निज संस्कार।
- अतः मिटा देना उसका अस्तित्व असम्भव-सा व्यापार।।
- कभी ‘काम-रिपु’ का केवल बल-संयम से होता न विनाश ।
- ‘प्रेम’-रूप आते ही पर वह होता नष्ट, बिना आयास।।
- ‘काम-नाश’ का इसीलिये है साधन एक नित्य अव्यर्थ-
- ‘त्याग-विशुद्ध प्रेम’ में परिणत कर दे उसे, समझकर अर्थ।।
- ‘प्रेम’-रूप में परिणत हो, फिर काम नहीं रह जाता ‘काम’।
- लौह स्वर्ण बन जाने पर ज्यों हो जाता है शुद्ध ललाम।।
- ‘काम’ नित्य ‘विषमिश्रित मधु’ है, ‘प्रेम’ नित्य शुचि सुधा अनूप।
- काम ‘दुःख परिणामी’ निश्चित, ‘प्रेम’ नित्य आनन्दस्वरूप ।।
- ‘काम’ अन्धतम प्राप्त कराता निन्दित नरक, तमोमय लोक ।
- ‘प्रेम’ ज्योतिमय रवि देता सुख, दिव्य लोक, निर्मल आलोक।।
- ‘काम’ स्व-सुखमय, सदा चाहता विविध भोग-अपवर्ग-पदार्थ।
- ‘प्रेम’ त्यागमय प्रियसुखकामी, मुनिवांछित ‘पंचम पुरुषार्थ’।।
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