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श्रीराधा का त्यागमय एकांगी निर्मल भाव
- हुआ समर्पण प्रभु-चरणों में जो कुछ था सब, में, मेरा।
- अग-जग से उठ गया सदा को चिरसंचित सारा डेरा।।
- मेरी सारी ममता का अब रहा सिर्फ प्रभु से सम्बन्ध।
- प्रीति, प्रतीति, सगाई सबही मिटी, खुल गये सारे बन्ध।।
- प्रेम उन्हीं में, भाव उन्हीं का, उनमें ही सारा संसार।
- उनके सिवा, शेष कोई भी बचा न, जिससे हो व्यवहार।।
- नहीं चाहती जाने कोई, मेरी इस स्थिति की कुछ बात।
- मेरे प्राणप्रियतम प्रभु से भी यह सदा रहे अज्ञात।।
- सुन्दर सुमन सरस सुरभित मृदुसे मैं नित अर्चन करती।
- अति गोपन, वे जान न जायें कभी, इसी डर से डरती।।
- मेरी यह शुचि अर्चा चलती रहे सुरक्षित काल अनन्त।
- रहूँ कहीं भी, कैसे भी, पर इसका कभी न आये अन्त।।
- इस मेरी पूजा से पाती रहूँ नित्य मैं ही आनन्द।
- बढ़े निरन्तर रुचि अर्चा में, बढ़े नित्य ही परमानन्द।।
- बढ़ती अर्चा ही अर्चा का फल हो एकमात्र पावन।
- नित्य निरखती रहूँ रूप मैं, उनका अतिशय मनभावन।।
- वे न देख पायें पर मुझको, मेरी पूजा को न कभी।
- देख पायँगे वे यदि, होगा मजा सभी किरकिरा तभी।।
- रह नहिं पायेगा फिर मेरा यह एकांकी निर्मल भाव।
- फिर तो नये नये उपजेंगे ‘प्रिय’ से सुख पाने के चाव।।
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