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श्रीराधा-श्रीकृष्ण का नित्यरूप
- ब्रजसुन्दरी प्रेम की प्रतिमा, कामगन्ध से मुक्त, महान।
- केवल प्रियतम के सुख-कारण, करतीं सदा प्रेम-रस-दान।।
- लोक-लाज, कुल-कान, निगम-आगम, धन, जाति, पाँति, यश, गेह।
- भुक्ति-मुक्ति सब परित्याग कर करतीं प्रिय से सहज सनेह।।
- इन्द्रिय-सुख की मलिन कामना है अति निन्दित कलुषित काम।
- मोक्षकाम-कामी ऊँचे साधक भी नहीं पूर्ण निष्काम।।
- काम सदा तमरूप, अन्धतम नरकों का कारण सविशेष।
- प्रेम सुनिर्मल हरि-रस-पूरित परम ज्योतिमय शुभ्र दिनेश।।
- जिसको नहीं मुक्ति की इच्छा, जिसे नहीं बन्धन का भान।
- केवल कृष्ण-सुखेच्छा हित जिसके सब धर्म-कर्म, मति-ज्ञान।।
- ऐसे गोपी-जन-मन में लहराता प्रेम-सुधा-सागर।
- इसलिये रहते उसमें नित मग्न रसिकमणि नटनागर।।
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