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− | प्रार्थना समाज के वर्तमान कवि श्रीनरसिंह राव ने गुजराती की एक काव्य पंक्ति में गम्भीर स्वर से इसी आशय का भाव अभिव्यक्त किया है। | + | प्रार्थना समाज के वर्तमान कवि श्रीनरसिंह राव ने गुजराती की एक काव्य पंक्ति में गम्भीर स्वर से इसी आशय का भाव अभिव्यक्त किया है। वे लिखते हैं-<poem style="text-align:center;"> ;विप्रलंभी विषयमोहिनी मधुस्वरा, |
;दिव्यधाम पंथ जतां आवीं विषधारा।</poem> | ;दिव्यधाम पंथ जतां आवीं विषधारा।</poem> | ||
− | दिव्यधाम के पथ के पथिक को वह विषय मोहिनी साँपिनी के समान आकर घेर लेती है। उस ‘विषयधरा’ | + | दिव्यधाम के पथ के पथिक को वह विषय मोहिनी साँपिनी के समान आकर घेर लेती है। उस ‘विषयधरा’ को मनुष्य ने स्वयं उत्पन्न नहीं किया। वह कुपन्थ में ले जाती है। वह बड़ी ठगिनी है, मनुष्य माया की भूल-भुलैया में पनी इच्छा से जान-बूझकर पड़ना नहीं चाहता। इसलिये यह मानना ही उचित मालूम होता है कि परमात्मा में ही कोई आवरण शक्ति है। जीव उसकी माया के ही वश में हैं।<ref>दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यंते मायामेतां तरंति ते॥(श्रीमद्भगवद्गीता))</ref> |
− | '''6-''' अब यह प्रश्न होता है कि परमात्मा में आवरण शक्ति कैसे हो सकती है ? | + | '''6-''' अब यह प्रश्न होता है कि परमात्मा में आवरण शक्ति कैसे हो सकती है? सगुण ब्रह्मवाद की भाषा में यदि बोलें तो यह प्रश्न उठता है कि परम दयालु परमात्मा में मनुष्य के प्रति ऐसी विप्रलम्भी क्रूरता कैसे हो सकती है? इसका उत्तर सगुण ब्रह्मवादी यह देता है कि ईश्वर ने विषयों के वशीभूत होने या न होने में मनुष्य को स्वतन्त्रता दे रखी है। शकर वेदान्तियों में कितने ही माया और अविद्या ऐसे दो भेद करके माया को ईश्वर की और अविद्या को जीव की मानते हैं। जीव स्वयं ही अविद्या में ग्रस्त होने का कारण होता है, अतः ईश्वर पर उसका दोषारोप नहीं हो सकता। विषयों के प्रति रागद्वेषादि में जीव ही अवश्य कारण है, किन्तु हमारा प्रश्न तो यह है कि जीव पर यह तूफान कहाँ से आता है, इस तूफान के बीच में निर्लेप रहना कदाचित जीव के सामर्थ्य की बात हो, किन्तु हम तो उस तूफान के कारण पर विचार करना चाहते हैं। पूर्वोक्त उत्तर से उसका खुलासा नहीं होता। |
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12:46, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण की होली
प्रार्थना समाज के वर्तमान कवि श्रीनरसिंह राव ने गुजराती की एक काव्य पंक्ति में गम्भीर स्वर से इसी आशय का भाव अभिव्यक्त किया है। वे लिखते हैं- ;विप्रलंभी विषयमोहिनी मधुस्वरा,
दिव्यधाम के पथ के पथिक को वह विषय मोहिनी साँपिनी के समान आकर घेर लेती है। उस ‘विषयधरा’ को मनुष्य ने स्वयं उत्पन्न नहीं किया। वह कुपन्थ में ले जाती है। वह बड़ी ठगिनी है, मनुष्य माया की भूल-भुलैया में पनी इच्छा से जान-बूझकर पड़ना नहीं चाहता। इसलिये यह मानना ही उचित मालूम होता है कि परमात्मा में ही कोई आवरण शक्ति है। जीव उसकी माया के ही वश में हैं।[1] 6- अब यह प्रश्न होता है कि परमात्मा में आवरण शक्ति कैसे हो सकती है? सगुण ब्रह्मवाद की भाषा में यदि बोलें तो यह प्रश्न उठता है कि परम दयालु परमात्मा में मनुष्य के प्रति ऐसी विप्रलम्भी क्रूरता कैसे हो सकती है? इसका उत्तर सगुण ब्रह्मवादी यह देता है कि ईश्वर ने विषयों के वशीभूत होने या न होने में मनुष्य को स्वतन्त्रता दे रखी है। शकर वेदान्तियों में कितने ही माया और अविद्या ऐसे दो भेद करके माया को ईश्वर की और अविद्या को जीव की मानते हैं। जीव स्वयं ही अविद्या में ग्रस्त होने का कारण होता है, अतः ईश्वर पर उसका दोषारोप नहीं हो सकता। विषयों के प्रति रागद्वेषादि में जीव ही अवश्य कारण है, किन्तु हमारा प्रश्न तो यह है कि जीव पर यह तूफान कहाँ से आता है, इस तूफान के बीच में निर्लेप रहना कदाचित जीव के सामर्थ्य की बात हो, किन्तु हम तो उस तूफान के कारण पर विचार करना चाहते हैं। पूर्वोक्त उत्तर से उसका खुलासा नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यंते मायामेतां तरंति ते॥(श्रीमद्भगवद्गीता))