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विखरे सुमन
27- भगवान प्रेम के साथ ही अपने-आपको भी दे डालते हैं। यह सौदा महँगा नहीं, बड़ा ही सस्ता है। हमारा सब कुछ जाय और बदलें में भगवान मिल जायँ, इसके समान कोई लाभ नहीं-यह परम लाभ है।
28- बुद्धिमान् जन प्रेम के लिये मोक्ष को भी भगवच्चरणों में समर्पित कर देते हैं।
29- भगवान मोक्ष देना चाहते हैं, पर प्रेमी जन उसे स्वीकार ही नहीं करते।
30- जिसे प्रेम प्राप्त हो जाता है, उसके ऊपर और कोई बन्धन तो रहता ही नहीं। रहता है केवल एक मात्र प्रेम का बन्धन। भला, प्रेमी प्रेम के बन्धन से कभी छूटना चाह सकता है? यह बन्धन तो उसके परम सुख का आधार है। जो इस बन्धन से मुक्त होना चाहता है वह तो प्रेमी ही नहीं है।
31- इस प्रेम के बन्धन में जा आनन्द है, उसकी तुलना लाख मुक्तियों से भी नहीं हो सकती। प्रेमानन्द बड़ा ही विलक्षण आनन्द है। इसका एक कण प्राप्त करके ही मनुष्य निहाल हो जाता है।
32- प्रेम का विकास और तुच्छ स्वार्थबुद्धि का नाश- दोनों साथ-साथ होते हैं।
33- जब तक स्वार्थ का त्याग नहीं है, तब तक भगवान में प्रेम नहीं है।
34- भगवान में प्रेम त्याग होता है, त्याग से पवित्रता आती है।
35- जितना-जितना भोगों से प्रेम हटता जायगा, उतनी-उतनी पवित्रता आती जायगी।
36- भगवत्प्रेम का प्रादुर्भाव होने पर प्रेम की बाहरी दशा दो में से एक होती है- या तो जगत से सर्वथा निवृत्ति हो जाती है या जगत में प्रवृत्ति हो जाती है। पहली अवस्था में वह उन्मत्त की तरह प्रतीत होने लगता है, दूसरी में सम्पूर्ण जगत का भगवान रूप में दर्शन करता हुआ सबकी सेवा करता है, सब की पूजा करता है। दोनों ही अवस्थाओं में जगत के पहले वाले रूप से तो उसकी निवृत्ति ही रहती है, जगत के पहले वाले रूप को तो वह भूल ही जाता है।
37- जहाँ देखता है, वहीं श्याम- एक तो यह अवस्था होती है दूसरे प्रकार की अवस्था यह है कि श्याम के सिवा और कुछ सुहाता ही नहीं। दोनों ही अवस्थाएँ पवित्रतम हैं, पर बाहरी लीला में भेद होता है।
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