श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
9. कालिन्दी-कल्याण
भाई उस दिन कह गये- 'कालिन्दी! तेरे संबंध से मैं भी धन्य होने वाला हूँ। बहिन! तू थोड़ी प्रतीक्षा और कर ले; किन्तु वे त्रिभुवन नाथ धरा पर आ रहे हैं। तू यदा कदा जल से निकलकर मानवों को भी देख और मानवी बनकर उनके समान रहना सीख। तू तो अब भी अबोध बच्ची ही है।' 'सचमुच मुझे तब तक यह कुछ नहीं आता था। मैं जल से निकलने लगी। अपनी समवयस्का कुमारियों को ध्यान देकर देखने लगी। मुझे बहुत-बहुत सीखना पड़ा। मेरे पैर पृथ्वी का स्पर्श नहीं करते थे, मेरे शरीर की छाया नहीं पड़ती थी, मैं लज्जा-संकोच जानती ही नहीं थी। यह सब त्रुटियां मुझे सप्रयत्न दूर करनी पड़ीं और इनमें समय लगा।' 'उस दिन मैं अपने प्रवाह के पुलिन पर निकली थी। वहाँ कोई और नहीं था। मैं टहलते आगे बढ़ रही थी। सहसा एक श्याम वर्ण सुन्दर दृढ़काय तरुण मेरे समीप आये। पीछे पता लगा कि श्रीद्वारिकाधीश ने मुझे देख लिया था। अपनी इस दासी पर इन्हें दया आ गयी थी। इन्होंने ही अपना सखा अर्जुन को भेजा था मेरे समीप।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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