श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
24. श्रीसंकर्षण
प्रद्युम्न ने एक दिन एकान्त में श्रीबलराम जी से प्रार्थना की- 'मुझे पता नहीं क्यों अग्नि से भय लगता है। रात्रि में स्वप्न में भी अग्नि देखकर मैं चौंककर डर जाता हूँ और लगता है कि मेरा शरीर नहीं है। मेरा शरीर भस्म की ढेरी से बना है।' 'तुम्हारा भय अकारण नहीं है।' 'मुझे कोई ऐसा स्तोत्र उपदेश कर दें जिसके पाठ से मैं अभय हो जाऊँ।' प्रद्युम्न ने प्रार्थना की। 'अच्छी बात! तुम सायंकाल इस आह्निक स्तोत्र का पाठ किया करो।'[1] ये दो केवल उदाहरण है। श्रीबलराम जी द्वारिका में यादव कुमारों के प्रशिक्षक, प्रेरणादायक, किसी समस्या के समाधानकर्ता और उनमें परस्पर विवाद होने पर निर्णायक हो गये। श्रीकृष्णचन्द्र के पुत्र-पौत्रों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती गयी, श्रीबलराम जी का कार्य बढ़ता गया। सब बालक उनको ही घेरे रहते थे। सबको लगता था कि वही उनका सबसे अधिक स्नेह-भाजन है। बालकों की समस्याएँ बनी रहती हैं और वे समस्याएँ चाहे तितली पकड़ने या उड़ा देने की हों या कोई पत्ता अथवा पुष्प तोड़ देने की-शिशु के लिए उस समस्या का गुरुत्व किसी दिग्विजय से कम महत्त्व नहीं होता। श्रीसंकर्षण के समीप ही शिशु दौड़ जाते थे कोई भी समस्या होने पर, और वे स्नेह-पूर्वक उसे सुलझा देते थे। बच्चों में से परस्पर विवाद स्वाभाविक रहता है। श्रीकृष्णचन्द्र अथवा कोई महारानी ऐसे विवाद को सुलझाने की स्थिति में नहीं थे। दो रानियों के पुत्रों में विवाद हो जाय तो जिसके पुत्र को दोषी कहकर डाँटा जायगा, उसकी माता के मन में दुःख होगा। बच्चों का विवाद क्षणस्थायी होता है; किन्तु उसमें पड़कर बड़ों के अन्तःकरण में विग्रह का बीज पड़ जाता है। अतः श्रीकृष्णचन्द्र ने तथा उनकी सब महारानियों ने सदा के लिए नियम बना लिया था, कोई बालक रोता या क्रोध में भरा आवे तो उसकी बात सुने बिना ही कह देना- 'अपने ताऊ जी के पास जाओ।'
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्तोत्र 'हरिवंश' के विष्णुपर्व, अध्याय 109 में देखना चाहिए।
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