श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
55. मान-भंग
एक दिन श्रीकृष्णचन्द्र ने गरुड़ को आज्ञा दी- 'तुम गन्धमादन पर जाकर श्रीहनुमान जी को ले आओ। उनको कहना कि उन्हें उनके आराध्य ने बुलाया है। गरुड़ के जाते ही चक्र को आज्ञा दी- 'द्वार पर रहो और किसी को भी भीतर मत आने दो।' सत्यभामा जी से कहा- 'महारानी रुक्मिणी जी से कह दो कि वे श्रीजानकी का रूप बनाकर मेरे समीप बैठें। पवन पुत्र को बुलाया है। उनके सम्मुख तो मुझे भी श्रीराम का रूप ही धारण करना है।' 'मैं क्या सीता से कम सुंदर हूँ।' 'यह तुम जानो। मैंने तो तुम्हें सावधान किया है।' श्रीकृष्णचन्द्र हँसकर बोले। उधर गरुड़ गन्धमादन पर पहुँचे तो हनुमान जी 'रघुपति राघव राजा राम' के कीर्तन में तन्मय थे। 'क्यों?' 'आपके आराध्य ने बुलाया है' 'आप पधारें, मैं आ रहा हूँ।' 'मेरी पीठ पर बैठ जाइये। मुझे साथ ले आने की आज्ञा है।' 'मुझे वाहन नहीं चाहिए। आप चलें, मैं आपसे पहिले पहुँच जाऊँगा।' 'आपको गरुड़ के वेग की कल्पना भी नहीं है।' गरुड़ ने सगर्व कहा- 'मेरी गति आपके पिता वायु से बहुत तीव्र है। मेरी गति की त्रिभुवन में तुलना नहीं है।' 'वह सब मैं नहीं जानता, किन्तु आप चलें! मैं आ रहा हूँ।' 'आप ऐसे नहीं चलेंगे तो मुझे बलपूर्वक आपको पकड़कर ले जाना पड़ेगा।' गरुड़ अकड़े- 'मेरे वेग के समान ही मेरी शक्ति अतुलनीय है। सुर-असुर सब मिलकर भी मेरे पराक्रम के समान नहीं हो पाते।' 'अच्छा- यह बात है।' सच्चा सेवक अपने स्वामी का मन समझने वाला हो जाता है। हनुमान जी को समझते देर नहीं लगी कि उनके कौतु की प्रभु ने क्यों गरुड़ को उनके पास भेजा है। उन्होंने गरुड़ की पूँछ पकड़ी और घुमाकर उन्हें फेंक दिया। गरुड़ जाकर द्वारिका के पास समुद्र में गिरे और वेग से फेंके जाने के कारण डूबते चले गये अतल गहराई तक। श्रीहनुमान जी भी द्वारिका के लिए उछले। श्रीकृष्णचन्द्र के भवनों के बहिर्द्वार पर ही वे उतरे, किन्तु चक्र ने उन्हें रोक दिया- 'किसी को भी भीतर जाने की आज्ञा नहीं है।' 'मुझे तो त्रेता में दशग्रीव-विजय के अवसर पर अयोध्या आने पर प्रभु ने कह दिया था- 'वत्स हनुमान! तुम्हारे लिये अन्तःपुर के एकान्त में भी आने में कोई अवरोध किसी समय नहीं है।' 'त्रेता में किसी वानर को दी गयी इस अनुमति को मानने के लिए मैं बाध्य नहीं हूँ।' चक्र प्रज्वलित हो उठा- 'तुम भीतर नहीं जा सकते।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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