श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
2. उपक्रम
मनुष्य के सम्मुख दो तत्त्व स्पष्ट हैं - जड़ प्रकृति और वह स्वयं। जड़ प्रकृति का विश्लेषण विज्ञान करता है। गीता में इस प्रकृति को अष्टधा कहकर अपरा प्रकृति कहा गया है। विज्ञान का विश्लेषण अब तक यहाँ पहुँचा है, कि प्रकृति केवल गति है। देश, काल और पदार्थ सब गति सापेक्ष हैं। परमाणु से टूटकर प्रचण्ड शक्ति उत्पन्न होती है, वह भी गति ही है। गति, शक्ति, प्रकाश ये एक के ही रूप हैं और यही उष्णता, आकृति, पदार्थ तथा देश-काल भी बनती है। गति कहें या प्रकृति, प्रश्न उठता है किसकी? गति भी किसी की होती है और प्रकृति या स्वभाव भी किसी का होता है। लेकिन वह तत्त्व बुद्धि या मंत्र की पकड़ में नहीं आता। समझ में और यन्त्र पकड़ में इतना ही आ सकता है कि गति और प्रकृति भी परिवर्तन धर्मा है। विकारी रहना, बदलते रहना -इसका स्वभाव है। जो लोग जगत को सत्य मानते हैं, वे भी परिवर्तनशील तो मानते ही हैं। जो मिथ्या कहते हैं, वे भी परिवर्तनशीलता का नाम ही मिथ्या देते हैं। अतः जगत के विषयों में दो मत वस्तुतः नहीं हैं। जब केवल बुद्धि से जगत के तथ्य का विचार किया जायेगा तो बौद्धमत ही प्राप्त होगा। ‘क्षणिकं क्षणिकं’ सब परिर्वतन धर्मा है, क्षणिक है और गति का लय शून्य में, अतः ‘शून्यं शून्यं’। अब इस संसार और शरीर के अतिरिक्त भी एक तत्त्व है और वह आप स्वयं हैं। बचपन से अब तक आपके शरीर में, मन में, बुद्धि में परिवर्तन हुए, होते ही रहते हैं; किन्तु आप में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यह जो अपरिवर्तन धर्मा, निर्विकार है उसे शून्य या क्षणिक कहना अनुभव के ही विपरित है। गीता में इस जीव तत्त्व को परा प्रकृति कहा। हमारा,आपका अनुभव है कि हम हैं। शरीर में जो असंख्य जीवाणु हैं, उनमें से कोई हम नहीं है और उनके समूह भी नहीं हैं। उन जीवाणुओं के जन्मने-मरने, घटने-बढ़ने का प्रभाव शरीर पर चाहे जो पड़े, हम अपरिवर्तित रहते हैं। ‘कार्यकरणकर्तृवे हेतुः प्रकृतिरुच्यते। जितने कार्य- पदार्थ, जड़ द्रव्य हैं, इन्द्रियाँ हैं और इनके व्यवहार में कर्तृत्वाभिमान है, इसका कारण प्रकृति है। पुरुष-चेतन-आप सुख-दुःख का भोग करने वाले हैं। भले आप इसे चिदाभाग कहें, साक्षीभास्य कहें, पर सरल ढंग की बात यही है कि आप सुखी-दुःखी होते हैं। आप है अर्थात सत हैं। आप जानते हैं- अनुभव करते हैं- जड़ नहीं है अर्थात चित हैं और आप सुख चाहते हैं- सुखी होते हैं। यदि बाहरी निमित्त आपको दुःखी, क्षुब्ध न करें तो बिना निमित्त भी आप शान्त-सुखी रहते हैं अर्थात सुख आपका स्वरूप है। आप सच्चिदानन्द हैं। जो विकारी नहीं है, जो चेतन है, जिसका स्वरूप आनंद है, वह शाश्वत नित्य तो होगा ही। तब इसमें विभाजन कौन करेगा? जड़ प्रकृति- देश, काल, पदार्थ गति सापेक्ष है और गति ही प्रकृति है, गति की परिसमाप्ति अर्थात शून्य, यह शून्य कैसे चेतन से परिच्छेद उपस्थित करेगा? इस प्रकार जब विचार की- श्रुति शास्त्रावलम्बित विचार को आप अपना मार्गदर्शक बनायेंगे तो एक अद्वय, सच्चिदानन्द, निर्विकार तत्त्व आपका स्वरूप हो जायेगा। जब एक ही अद्वय तत्त्व है तो उसे ‘अहं’ के अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं कह सकते। वह निर्विकार है अतः निर्गुण है। उसका दर्शन साक्षात्करादि संभव नहीं। वह स्वरूप है, वह ज्ञान है- ज्ञाता या ज्ञेय नहीं| |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागव गीता 13 - 20
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