श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
20. श्रीबलराम की व्रजयात्रा
प्रद्युम्न सोलह वर्ष के होकर आये थे। पूरे सोलह वर्ष देवी रुक्मिणी की आराधना चली थी पुत्र के लौटने की कामना से, और श्रीसंकर्षण उस रात्रि से ही हरण हुए कुमार की शोध के लिये सक्रिय रहे थे। श्रीकृष्ण तो निर्गुण, निष्क्रिय, पूर्णकाम, स्वयं में परिपूर्ण हो सकते हैं; किन्तु श्रीसंकर्षण- वे तो स्नेह, वात्सल्य, अपनों के संरक्षण की मूर्ति हैं। इसी से तो अबले, अनाश्रयप्राणी उनके श्रीचरणों की ही शरण लिया करते हैं। पूरे सोलह वर्ष गुप्तचरों का संचालन- उनके लाये संवादों का श्रवण-परीक्षण वे करते रहे थे। प्रद्युम्न आ गये तब उनका चित्त इस ओर से अवसर पा सका। 'बहुत दिन-बहुत वर्ष हो गये श्रीकृष्ण! हमारे व्रज के सुहृदों का समाचार ही नहीं मिला।' प्रद्युम्न के आगमन का उत्सव समाप्त होते ही वे छोटे भाई से बोले। 'आर्य! आप ब्रज हो आयें।' श्रीकृष्णचन्द्र का शरीर रोमांचित हो गया। नेत्रों में अश्रु आ गये। 'हम दोनों द्वारिका से कहीं भी एक साथ नहीं जा सकते। पौण्ड्रक है, शाल्व है और इन सबके मित्र हैं। अपने इन आश्रितों का संरक्षण विवश किये है हमें।' संरक्षण- जब से ब्रज से आये, उसी दिन से लग गये संरक्षण में और इस संरक्षण से अवकाश नहीं है। सचमुच नहीं है। कंस के मरते ही जरासन्ध का आतंक उपस्थित हो गया था और उसी के कारण द्वारिका आना पड़ा। यहाँ भी कब कौन आ चढ़े, इसका भरोसा नहीं। अभी विरोधियों की- असुरों की भी पर्याप्त बड़ी संख्या बची है और उनमें अनेक अमित पराक्रम हैं। द्वारिका में राम या कृष्ण- दोनों एक भी न रहें तो द्वारिका का संरक्षण संदिग्ध हो उठेगा। तप करने कैलास जाते समय ही कितनी सावधानी रखनी पड़ी थी। व्रज- व्रज तो जीवन है। श्रीकृष्णचन्द्र व्रज का स्मरण आने पर द्वारिका में विह्वल हो उठते हैं, व्रज जाने पर इनको दूसरा कोई स्मरण अवेगा? व्रज जाकर फिर लौटना? श्रीकृष्ण के लिये यह सोचना ही कठिन है। कुछ थोड़े दिनों के लिये तो व्रज नहीं जाया जा सकता। 'कृष्ण आवेंगे' इस प्रतीक्षा में ही जो जीवित है, उन प्रेममूर्ति प्राणों का विश्वास है- 'कृष्ण हमारे हैं। वे केवल मथुरा के लोगों का संरक्षण करने रुके हैं। वे आवेंगे- हमारे मध्य आ जायेंगे।' उनके प्राणों को क्या यह समझाना है- 'कृष्ण हमारे केवल सुहृद हैं। कभी-कभी ही आ सकते हैं?' श्रीकृष्ण सचमुच व्रज के हैं। सचमुच वे यादव-संरक्षण के लिये ही रुके हैं। सचमुच वे व्रज जायँगे तो व्रज के ही होंगे और तब इन्हें सृष्टि में और भी कहीं कोई है- यह स्मरण नहीं आने का। श्रीसंकषर्ण को व्रज जाना है। श्रीकृष्णचन्द्र ने प्रत्येक सुहृद के लिये संदेश दिया- उपहार दिये। वसुदेव जी- माता देवकी, उग्रसेन जी ने उपहार दिये और श्रीबलराम रथ में बैठकर व्रज के लिये द्वारिका से चले। व्रज दूर है द्वारिका से; किन्तु व्रज को चले और द्वारिका भूल गयी। बाबा, मैया, गोपकुमार, गोपियाँ, गायें- लगने लगा कि व्रज सम्मुख ही है। व्रजयात्रा में मार्ग-विश्राम कैसा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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