श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. भानुमती-हरण
क्या प्रतिशोध और कैसे लेना है भाई का प्रतिशोध, यह कुछ निर्णय नहीं- केवल प्रतिशोध। क्रोध अन्धा होता है। क्रोधावेश में विचारशक्ति विदा हो जाती है। निकुम्भ के साथ ही ऐसा नहीं हुआ था। निकुम्भ वज्रपुर से भागकर षट्पुर गया था; किन्तु शीघ्र द्वारिका पहुँच गया। उस महामायावी ने किसी प्रकार द्वारिका में प्रवेश प्राप्त कर लिया और वहाँ भानु नामक यादव प्रमुख के उपवन में छिपकर रहने लगा। वहाँ वह अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था। एक पर्व पर श्रीकृष्णचन्द्र, श्रीबलराम, सात्यकि, प्रद्युम्न आदि यादवगण पिण्डारक तीर्थ गये। द्वारिका में महाराज उग्रसेन, वसुदेव जी जैसे वयोवृद्ध रह गये थे। वहाँ पृथक-पृथक नौकाओं में सपरिवार बैठकर लोग समुद्र में विचरण करने लगे। द्वारिका में केवल कुछ परिवार की महिलाएँ और वृद्ध बचे थे। ऐसे समय नारियों को पर्याप्त सुविधा मिल जाती है घूमने-क्रीड़ा करने की। भानु की पुत्री भानुमती इस सुयोग के कारण अपने पिता के उपवन में क्रीड़ा करने आ गयी। दानव निकुम्भ को अवसर मिल गया। उसे लगा- 'मेरे भाई की कन्या का प्रद्युम्न ने हरण किया और भाई को मार दिया तो इसका ठीक प्रतिशोध यही है कि मैं इनके कुल की कन्या का हरण कर लूँ। जब ये इसका पता लगाते मेरे नगर में आवेंगे तो इनको मार दूँगा।' दानव ने भानुमती को उठाया और आकाश मार्ग से भाग खड़ा हुआ। इस प्रकार अकस्मात उठा लिये जाने से कन्या रोने-चिल्लाने लगी थी। दूर तक उसकी क्रन्दन ध्वनि सुनायी पड़ती रही। भानु के अंतःपुर में कोलाहल होने लगा। द्वारिका में नगर-रक्षक सावधान होकर दौड़े। महाराज उग्रसेन और वसुदेव जी भी कवच धारण करके धनुष चढ़ाये निकले, किन्तु अपराधी का कहीं पता नहीं लगा। वह मायावी दानव आकाश में अदृश्य हो गया था कन्या को लेकर। श्रीकृष्णचन्द्र के समीप तत्काल समाचार भेजा गया। उस समय गाण्डीवधन्वा अर्जुन भी द्वारिका आये थे और अपने मित्र के साथ ही जल-विहार करने गये थे। समाचार पाते ही श्रीद्वारिकाधीश ने गरुड़ का स्मरण किया। गरुड़ की पीठ पर अर्जुन के साथ स्वयं बैठे और प्रद्युम्न को भी पीछे बैठा लिया। निकुम्भ भानुमती को लेकर सीधे वज्रपुर की ओर भागा था। वह सोचता था कि उसके वज्रपुर जाने की कल्पना कोई नहीं करेगा; क्योंकि वहाँ तो प्रद्युम्न, गद तथा साम्ब के पुत्रों का शासन था। दानव को आशा थी कि वज्रपुर के किसी अत्यन्त गुप्त स्थान में जिसे दूसरे नहीं जानते, वह छिप सकेगा। ऐसे अनेक स्थान वहाँ थे जिन्हें भाई वज्रनाभ ने उसे बतलाया था। निकुम्भ चाहे जितने वेग से भागता, मनोवेग विनता-नन्दन की गति के सम्मुख वह कहाँ जाता। वज्रपुर पहुँचने से पूर्व ही मार्ग से गरुड़ उसके सम्मुख आ गये आगे से घूमकर। दानव ने भानुमती को वाम कर से पकड़ा और सम्मुख कर दिया। स्वयं उस कन्या की आड़ में होकर गरुड़ पर गदा-परिंघ फेंकने लगा। अर्जुन ने धनुष चढ़ा लिया और कन्या को बचाकर दानव पर बाण चलाने लगे। गाण्डीव से छूटे शरों का आघात असह्य था। असुर अन्तर्धान हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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