श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
44. वसुदेव जी का यज्ञ
'आप सब मेरी धृष्टता क्षमा करें।' श्री वसुदेव जी ने अत्यन्त नम्रतापूर्वक कहा- 'किन्तु जीवन में ऐसा सौभाग्य मुझे पुनः कब मिलने वाला है कि आप सबके दर्शन एक साथ हों। अनुग्रह करके आप आ गये हैं तो मुझ पर इतनी कृपा और कर दें, कर्म के द्वारा कर्मपाश से कैसे छुटकारा हो सकता है यह बतला दें मुझे।' सभी नरेशों को प्रश्न अत्यन्त प्रिय लगा। सभी की समस्या यही है। वैराग्य हुआ नहीं, अतः त्याग की चर्चा की नहीं जा सकती। इन महात्यागियों से और क्या पूछा जाय। ये जो त्याग, तप करते हैं वह अपने लिए अशक्य लगता है। लेकिन प्रायः सब महर्षि चकित होकर एक दूसरे की ओर देखने लगे, जैसे कोई अकल्पित बात हो गयी हो। अकल्पित बात ही तो- जिनका स्मरण, श्रवण तक प्राणी के कर्मपाश भर्म कर देता है, जिनके चरण स्मरण की उत्कण्ठा इन महर्षियों के भी मानस को समुत्सुक रखती है, वे साक्षात परमपुरुष पुरुषोत्तम जिनके पुत्र बनकर अवतीर्ण हुए, उनके कर्मपाश? कौन से कर्मपाश बचे है श्रीवसुदेव जी के कि उनमे छुटकारे का उपाय उन्हें बतलाये कोई? फिर कर्म से कर्मपाश का छुटकारा? महर्षिगण इस प्रश्न को लोक-संग्रह भी कैसे मान लें? श्रीकृष्ण के पिता का गौरव प्राप्त करके भी कर्म-पाश से छुटकारा पाने का प्रयत्न लोक को भ्रान्त करेगा या कोई उत्तम आदर्श देगा? 'यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।' देवर्षि नारद द्वारिका में प्रायः आते-जाते रहने वाले, उन्हें सबका व्यवहार एवं मनःस्थिति ज्ञात है। उन्होंने ऋषियों से कहा- 'ये वसुदेव जी श्रीकृष्ण को तो अपना पुत्र मानते हैं अतः हम सबसे अपने कल्याण का उपाय पूछ रहे हैं। मनुष्यों का स्वभाव ही है कि बहुत सन्निकटता उनके अनादर का कारण होती है। गंगातट पर बसने वाले लोग गंगा जी को छोड़कर दूरस्थ तीर्थों की यात्रा शुद्ध होने के लिए करते देखे जाते हैं।' 'इसमें वसुदेव जी का दोष भी क्या है।' 'महर्षियों ने वसुदेव जी से कहा- 'कर्म के द्वारा कर्मपाश से छुटकारे का उत्तम मार्ग श्रुति के तत्त्वज्ञों ने यही बतलाया है कि श्रद्धापूर्वक न्यायार्जित धन से यज्ञ करके यज्ञ पुरुष की आराधना की जाय, क्योंकि इससे चित्त की शुद्धि होती है। चित्त उपशम को प्राप्त होता है।' मार्ग तो वही उपयुक्त है, चलने वाला जिस ओर जाना चाहे। वसुदेव जी कर्म के द्वारा कर्मपाश का छुटकारा चाहते हैं अतः मुनियों ने कहा- 'मनुष्य तीन ऋणों से ग्रस्त होता है-
'यज्ञ और दान के द्वारा वित्तैषणा, गार्हस्थ्य का पालन करके पुत्रैषणा और स्वयं विवेक करके लोकैषणा का बुद्धिमान को त्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार तीनों को त्यागकर धीर पुरुष तपोवन जाते हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज