श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
10. महारानी मित्रविन्दा
राजमाता राजाधिदेवी उन दिनों अपने भाई के उन्हीं दोनों पुत्रों की चर्चा, उन्हीं के प्रेम में विह्वल हो गयी। वे तो उसी दिन से दोनों भाइयों के समावर्तन-संस्कार की प्रस्तुति में लग गयी थी। दोनों के लिये स्वर्णखचित रत्नजटित उष्णीष, कंचुकादि की स्वयं रचना करने लगी थी। 'अनन्त शोभाधाम हैं, ये वासुदेव। साक्षात नारायण प्रकट हुए मेरे भाई के घर उनके छोटे पुत्र बनकर और उनके बड़े भाई स्वयं अनन्त हैं।' माता के लिये उन दिनों दूसरा कोई वर्णनीय, चिन्तनीय रह नहीं गया था। वे दोनों का- विशेषतः छोटे भ्रातृपुत्र का रूप, गुण, उनके कंस-वधादि पराक्रम का वर्णन करती रही, बार-बार वर्णन करती रहीं। उनकी एकमात्र कन्या मित्रविन्दा- वह तब अल्पवयस्का किशोरी थी। माता के मुख से रात-दिन जिनकी शोभा, जिनके गुण, जिनके पराक्रम को सुना उसने, उनको देखने की उत्कण्ठा उसे क्यों नहीं होती। वह माता से पूछती थी- 'वे कब आवेंगे यहाँ?' 'जब उनका समावर्तन संस्कार हो जायेगा।' माता कहतीं- 'वे आवेंगे- मैं उन्हें आग्रह करके, हाथ पकड़कर ले आऊँगी। मेरे भाई के पुत्र हैं। मेरा आतिथ्य ग्रहण किये बिना चले कैसे जायेंगे।' 'समावर्तन कब होगा?' मित्रविन्दा भोलेपन से माता से पूछती थी- 'महर्षि शीघ्र समावर्तन नहीं कर सकते?' 'महर्षि जब शिक्षा समाप्त कर लेंगे तभी समावर्तन होगा। इसमें शीघ्रता नहीं की जा सकती।' राजमाता ने कहा था- 'किसी को दो-चार वर्ष लगते हैं और किसी को बीस वर्ष भी लगते हैं। जिस बालक में जैसी बुद्धि हो, जैसी प्रतिभा हो, जैसी ग्रहण-शक्ति हो उतना समय लगता है। मेरे ये भ्रातृपुत्र असाधारण हैं, इन्हें वर्ष-दो-वर्ष से अधिक नहीं लगेंगे।' कहाँ के वर्ष-दो-वर्ष, तीसरे महीने के प्रारम्भ में ही अकस्मात समाचार मिला- 'बलराम-श्रीकृष्ण का कल समावर्तन संस्कार होगा।' रात्रि भर माता के साथ बालिका मित्रविन्दा व्यस्त रही समारोह के लिये सामग्री प्रस्तुत करने में। 'ये अनन्त! ये वासुदेव!' उसने तो कल्पना भी नहीं की थी कि सृष्टि में इतना सौन्दर्य भी होता है। उसने श्रीकृष्ण को देखा और देखती रह गयी। फिर उसने उत्सव में क्या-क्या हुआ, यह कुछ नहीं देखा। वह तो उसी दिन उनको हृदय दे चुकी- उनकी हो गयी। समावर्तन के पश्चात वे रथ में बैठे और कहीं तत्काल चले गये। माता ने कहा- 'महर्षि ने अपना समुद्र में डूब गया पुत्र गुरुदक्षिणा में माँगा है। उसे लेने गये हैं दोनों भाई।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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