श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. शिव-संग्राम
इधर कई वर्षों से देवर्षि नारद द्वारिका नहीं आये थे। अचानक वे उतरे गगन से और सुशर्मा साथ में ही पहुँचे। श्रीकृष्णचन्द्र तथा सभी ने उठकर उनका स्वागत किया। आसन ग्रहण कर लेने पर उनकी विधिपूर्वक पूजा की गयी। देवर्षि ने एक बार सबकी ओर देखकर पूछा- 'मैं आप सबके मुखों पर चिन्ता के चिह्न क्यों देखता हूँ?' श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'रात्रि में सोते समय अनिरुद्ध का अपहरण हो गया। आज चार वर्ष हो गये उनका पता नहीं लग रहा है। हमारे सब प्रयत्न असफल हुए हैं। उनकी माता और पितामही को बहुत अधिक चिंता है। आप सर्वज्ञ है।' देवर्षि हँसे- 'आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नित्य सर्वज्ञ नहीं है और आप नारद को श्रेय देने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यहाँ से ग्यारह सहस्र योजन दूर कैलास के पार्श्व में बलि के पुत्र वाणासुर के नगर शोणितपुर में अनिरुद्ध बन्दी है।' देवर्षि ने अनिरुद्ध-हरण उनका पौरुष और वर्तमान परिस्थिति का परिचय दिया। द्वारिका में उसी क्षण युद्ध-भेरी बजने लगी। श्रीबलराम, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न, गद, सात्यकि, साम्बादि समस्त महारथी तत्काल प्रस्थान को प्रस्तुत हो गये। द्वारिका में महाराज उग्रसेन, वसुदेव जी, अक्रूर जैसे यदु वृद्धों को छोड़कर बारह अक्षौहिणी यादवों की महासेना ने विजय-मुहूर्त में प्रस्थान किया। शोणितपुर में बहुत दूर था किन्तु जब श्रीसंकर्षण अपने ऐश्वर्य का प्रयोग करें तो दूरी कहाँ रह जाती हैं! एक बार पहिले भी रुक्मिणी हरण के अवसर पर अपने संकल्प बल से वे समस्त चतुरङ्गिणी सेना को द्वारिका से विदर्भ पहुँचा चुके थे। इस बार भी उनके आदेश से सबने नगर से निकलते ही नेत्र बन्द किये और नेत्र खोलने पर देखा कि शोणितपुर के समीप पहुँच गये हैं। चारों ओर उत्तुंग हिम शिखर और मध्य में वह दुर्गम दिव्य नगर। जहाँ स्वयं भगवान शंकर नगर-रक्षक होकर निवास करते हों, उस नगर की शोभा और दुर्गमता का वर्णन नहीं किया जा सकता। नगर की रक्षा के लिए प्रज्वलित आह्वनीय अग्निदेव स्वयं साकार बाहर नगर की परिक्रमा कर रहे थे। गरुड़ ने आकाश-गंगा का जल मुख में भरा और अग्नि पर उड़ेल दिया। आह्वनीय अग्नि अत्यन्त पवित्र हैं। यह गरुड़ोच्छिष्ट जल पड़ते ही वे शान्त होकर अन्तर्हित हो गये। अब प्रमुख अग्नि महर्षि अंगिरा आग्नेय रथ पर बैठे हाथ में बाण लिये आगे आये। उनके पार्श्व में कल्माष, कुसुम, दहन, शोषण तथा तपन ये पाँचों जातवेदा स्वाहाकार विषयक प्रख्यात अग्नि थे। वाम पार्श्व में पिठर, पतंग, स्वर्ण, श्वागध और भ्राज ये पाँच स्वधाकार विषयक अग्नि थे तथा पृष्ठ-रक्षक के रूप में वषट्कार विषयक एवं ज्योंतिष्टोम अग्नि थे। ये रुद्रानुचर अग्नि और इनके प्रमुख महर्षि अंगिरा, यादव सेना स्तम्भित रह गयी। साक्षात देवताओं से यहाँ युद्ध करना था किन्तु श्रीकृष्णचन्द्र ने शारङ्ग धनुष चढ़ा लिया था। उनके प्रथम प्रणाम सूचक आघात से ही महर्षि अंगिरा आहत होकर गिरे और मूर्च्छित हो गये। दूसरे सब अग्नि उन्हें उठाकर नगर में ले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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