श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
56. प्रेम का आदर्श
'मेरी भक्ति में त्रुटि कहाँ है?' देवर्षि नारद को लगता है कि गोपियों के वर्णन के द्वारा श्रीद्वारिकाधीश उन्हें सदा कुछ समझाना चाहते हैं किन्तु क्या? आज यह पूछने का ही निश्चय करके देवर्षि द्वारिका आये थे। महरानी रुक्मिणी जी ने आज स्वागत किया। देवर्षि को कुतूहल हुआ- एकान्त में श्रीकृष्णचन्द्र ऐसा क्या कर रहे हैं कि रुक्मिणी देवी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं हैं। वे कक्ष में पहुँचे और ठिठककर खड़े रह गये। 'अविनय क्षमा करें!' श्रीकृष्णचन्द्र शैय्या पर पीताम्बर ओढ़े क्लान्त पड़े थे। लेटे लेटे ही बोले- 'मस्तक में अतिशय पीड़ा होने के कारण अभ्युत्थान में असमर्थ हो रहा हूँ।' श्रीकृष्ण के चिन्मय शरीर में रोग संभव नहीं- यह बात स्वस्थ चित्त स्मरण कर सकता है। उन परम प्रेमास्पद की क्लान्ति, शिथिल स्वर ने देवर्षि को व्याकुल बना दिया। वे शैय्या के समीप पहुँचे और मस्तक का कर से स्पर्श करते बोले- 'द्वारिका में कोई कुशल चिकित्सक नहीं? मैं अश्विनीकुमारों को अभी लिये आता हूँ।' 'आवश्यकता चिकित्सक की नहीं, औषधि की है।' 'औषधि कहाँ है? नारद के लिए कोई भी स्थान अगम्य नहीं है।' देवर्षि वस्तुतः व्याकुल हो उठे थे। उन्हें गरुड़ पर क्रोध आ रहा था कि वे अब तक औषधि क्यों नहीं ले आये। 'औषधि है तो सर्वत्र किन्तु कोई दे तब।' श्रीकृष्णचन्द्र ने इस बार कह दिया- 'मुझे किसी भी भक्त की चरण-रज स्वस्थ कर सकती है।' भक्त वत्सल, भक्त प्राण प्रभु को भक्त की पीड़ा ही व्यथित करती है तो भक्त चरण-रज क्यों उन्हें स्वस्थ नहीं करेंगी। 'आप कहते क्या हैं?' देवी रुक्मिणी ने सुनकर मस्तक झुका लिया- 'हम सब उनकी चरण सेविकाएँ हैं। उनको पद-रज देने की अधम कल्पना का पाप मन में भी कैसे ला सकतीं हैं।' देवर्षि ने समझ लिया कि महारानियों में, पुत्रों में, प्रजा में, कोई प्रस्तुत नहीं होगा श्रीकृष्णचन्द्र को अपनी चरण-रज देने के लिए। लेकिन जब वे वसुदेव जी, माता देवकी के यहाँ गये, गर्गाचार्य के समीप पहुँचे तो सर्वत्र एक ही उत्तर मिला- 'यह दूसरी बात है कि श्रीकृष्ण सम्मुख आते हैं और पद-वन्दना करते हैं। वे सर्वसमर्थ हैं, नर लीला करते हुए लोक, वेद मर्यादा का अनुसरण करते हैं तो उन्हें रोका नहीं जा सकता किन्तु उन साक्षात परम पुरुष को जान-बूझकर अपनी ओर से अपनी पद-रज देने का दुस्साहस करना तो घोर पाप है। आप यह प्रस्ताव भी कैसे कर पाते हैं?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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