श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
89. स्वधाम गमन
सहसा गगन विमानों से भर गया। देवी पार्वती के साथ भगवान शंकर अपने वृषभ पर विराजमान दीख पड़े और उनके समीप ही हंसवाहन चतुरानन, इनके पीछे तो इन्द्र, वरुण, कुबेर आदि सब लोकपाल, सब देवता, महर्लोक, तपोलोक, जनलोक के प्रायः सब देवर्षि, महर्षि, प्रजापति, अर्यमा आदि पितर प्रमुख, सिद्धगण, गन्धर्व, विद्याधर, दिव्य नाग, चारण, किन्नर, यक्ष, राक्षस, अप्सराएँ आदि जितने देव-उपदेव जाति के दिव्य देहधारी हैं, जो भी व्योम विचरण में समर्थ हैं, वे सब आ गये। दिन का मध्याह था और आकाश मेघ शून्य था किन्तु उन देवता, सिद्धादि के इतने समूह आ गये कि उनके दिव्य-देह होने पर भी पृथ्वी पर सूर्य की किरणों का प्रकाश पूरा नहीं आ पाता था। आकाश में गन्धर्व गायन करने लगे। किन्नरों ने वाद्य उठा लिये थे। अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं और ऋषि-मुनि-देवता स्तवन में लगे थे श्रीकृष्णचन्द्र के गुण चरितों का वर्णन करते हुए राशि-राशि दिव्य कुसुमों की वर्षा कर रहे थे। सबके हृदय में एक ही कुतूहल था- 'परम पुरुष पुरुषोत्तम अपने इस पार्थिव प्रतीत होने वाले चिदानन्दघन श्रीविग्रह का कैसे तिरोभाव करते हैं?' सृष्टि में चेतना की सम्पूर्ण षोडशकला की यह अभिव्यक्ति अद्भुत थी और अकल्पनीय थी। उसका प्राकट्य, क्रीड़ा, चरित एवं प्रभाव का अनुभव ब्रह्मा जी तथा इन्द्र ने तो व्यक्तिगत रूप से भी प्राप्त किया था। अतः ये अतर्क्य अचिन्त्य महिमाशाली मधुसूदन अब मर्त्यलोक का त्याग कैसे करते हैं- यह देखने, जानने की उत्सुकता सब दिव्य देहधारियों में थी। मनुष्य का पांचभौतिक देह अहंकार के तामसरूप का, तामस, अहंकार का कार्य है। यह पार्थिव है, पृथ्वीतत्त्व प्रधान। देव शरीर तेजसतत्त्व प्रधान होते हैं। देवता सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न हैं। अतः देवताओं को सात्त्विक जगत से इस पार्थिव तामस जगत में प्रादुर्भाव, तिरोभाव की प्रक्रिया ज्ञात है। वे चाहे जब जगत के लोगों के सामने प्रकट और अन्तर्हित हो सकते हैं। यह सूक्ष्मता, सत्त्वगुण से स्थूलत्व, तमोगुण में उतरने एवं उससे उठ जाने का क्रम है। किन्तु गुणातीत विशुद्ध चेतन कैसे, किस क्रम से पार्थिव जगत में प्रकट होता है, यह सृष्टिकर्ता भी समझ नहीं सके थे। इसीलिए उन्हें श्रीकृष्ण के संबंध में मोह हुआ था। उनको इन्द्रादि सबको यह निश्चय तो हो गया था वह अतुलनीय प्रभाव देखकर कि श्रीकृष्ण साक्षात परमपुरुष हैं, किन्तु कैसे वे मानवाकार में आये, यह उनकी भी समझ से परे था। अब श्रीकृष्ण इस लीला का जब उपसंहार करने जा रहे थे तो उनके तिरोभाव के क्रम से आविर्भाव क्रम को भी समझने की आशा थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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