श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. सत्या : नाग्नजिती
'धर्मस्य प्रभुरच्युतः' अत्यन्त धार्मिक नरेश नग्नजित जानते थे कि वे अच्युत, धर्म के किसी अनुष्ठान से प्राप्य नहीं है। वे तो अनुग्रह करें तभी मिलते हैं। धर्म निष्काम हो तो अन्तःकरण को शुद्ध कर देता है और शुद्धान्तःकरण में शुद्ध प्रज्ञा का उदय होता है। महाराज की शुद्ध प्रज्ञा ने उन्हें एक मार्ग दिखला दिया था। सप्तलोकों को प्राप्त कराने वाले धर्म के सप्तधा स्वरूप- नग्नजित के यहाँ सप्तवृषभ के रूप में वे धर्माधिदेवता महाराज की धर्मनिष्ठा से प्रसन्न होकर निवास करने लगे। वे सप्तशुभ्रवर्ण के गज के समान उत्तुंगकाय, सुपुष्ट, तीक्ष्णश्रृंग वृषभ। वे विचित्र स्वभाव के थे। बहुत सुन्दर, बहुत प्रिय और बहुत सीधे। एक बालक भी उनको स्थानान्तरित कर लेता था। शिशु खेलते रहते थे उनसे; किन्तु वीरों की गन्ध भी उन्हें असह्य थी। कोई बलपूर्वक उन्हें पकड़ना चाहे तो वे अत्यन्त उग्र होकर आक्रमण कर देते थे। धर्म बहुत शुभ्र, बहुत मंगलमय; बहुत सरल; किन्तु अहंकार की गंध भी असह्य है उसे। अहंकार हो तो धर्म उग्र-घातक बन जाता है। वे धर्म-वृषभ। सातों साथ ही रहते थे। बन्धन की बात उनके सम्बन्ध में नहीं सोची जा सकती थी। वे पूज्य थे, पूजा होती थी उनकी। एक विशाल घेरे में स्वच्छन्द घूमते थे। सेवकों के लिये तो वे मृगों की अपेक्षा भी सरल थे। महाराज नग्नजित ने घोषणा कर दी थी- 'उनकी भुवनसुन्दरी कन्या उसका वरण करेगी जो एकाकी इन सातों वृषभों को नियन्त्रित कर लेगा।' महाराज समझते थे कि धर्म के निगृहीता अच्युत के अतिरिक्त और कोई हो नहीं सकते। अनेक राजकुमार आये। राजकुमारी सत्या के सौन्दर्य की, शील की, गुणों की ख्याति बहुतों को प्रलुब्ध करके खींच लाती थी; किन्तु कोई कितना भी बलवान हो, एक साथ सात क्रुद्ध अत्यन्त विशाल वृषभों से कैसे पार पा सकता है। बहुत बलवान, स्फूर्तियुक्त पुरुष भी अधिक-से-अधिक दो वृषभों को झेल सकता है। वृषभ धर्म के रूप हैं। उन पर आघात नहीं किया जा सकता। उनके वध की बात तो बहुत दूर, उन्हें आहत भी नहीं किया जा सकता। उन्हें निगृहीन मात्र करना था। अनकी नासिका में रज्जु डालनी थी और वे वृषभ तो रज्जु देखते ही विकराल बन जाते थे। फूत्कार करते टूट पड़ते थे वे। बहुत राजकुमार आये-आते गये। निहत्थे ही तो उन्हें वृषभों के मध्य उतरना था। मल्लयुद्ध में जिनकी लोक में प्रसिद्धि थी, वे भी कवच पहिनकर ही वृषभ-निग्रह के लिये घेरे में प्रवेश करते थे; किन्तु उन वृषभों के तीक्ष्ण श्रृंग दृढ़तम कवच को भी कहाँ टिकने देते थे। महाराज नग्नजित ने व्यवस्था कर रखी थी कि कोई राजकुमार जैसे ही आहत हो, उसे सेवक तत्काल वृषभों के सम्मुख से उठा लें। उसका भली प्रकार उपचार किया जाय। सेवक अभ्यस्त हो गये थे। वे जानते थे कि घेरे में प्रवेश करने के अगले ही क्षण प्रवेश करने वाले को शीघ्रता से उठा लेना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज