श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
16. हंस-डिम्भक-मोक्ष
राजा ब्रह्मदत्त को स्वप्न में भगवान शंकर ने दर्शन दिया। उनको स्वप्न में ही दो पुत्र होने का वरदान मिला। ब्राह्मण को भी उनके आराध्य ने स्वप्न जैसी स्थिति-जाग्रत-स्वप्न की मध्यावस्था में दर्शन देकर भगवद्भक्त पुत्र होने का वरदान दिया। राजा ब्रह्मदत्त के दो पत्नियाँ थीं। दोनों सगर्भा हुईं। दोनों के एक ही दिन पुत्र हुए। उनमें-से एक का नाम 'हंस' और दूसरे का नाम 'डिम्भक', राजा ने रखा। दोनों जैसे युग्मज हों, इस प्रकार उनका आकार, व्यवहार, शील-स्वभाव समान था। दोनों में अत्यन्त प्रेम सदा बना रहा। जो एक सोचता, कहता, करता वही दूसरे का भी अभीष्ट बन जाता। ब्राह्मण मित्रसह की पत्नी ने भी पुत्र को जन्म दिया। ब्राह्मण ने पुत्र का नाम 'जनार्दन' रखा। जनार्दन आयु में राजकुमारों से कुछ छोटा था, अतः छोटे भाई की भाँति दोनों राजकुमारों के साथ रहने लगा। तीनों में अच्छी गाढ़ी मित्रता हो गयी। एक अंतर अवश्य था तीनों में। जनार्दन श्रीहरि के वरदान से उत्पन्न हुआ था, ब्राह्मण पुत्र था। अत: वह विष्णुभक्त था। शास्त्र पर, सत्पुरुषों पर, संतों पर उसकी श्रद्धा थी। वह शांत संयमी, धार्मिक एवं हरिभक्ति परायण हुआ; किन्तु दोनों राजकुमार परम शैव, अत्यन्त महात्वाकांक्षी, विरोध-असहिष्णु एवं उग्र प्रकृति के हो गये। दोनों राजकुमार पिता की आज्ञा लेकर हिमालय पर तप करने चले गये; क्योंकि साधारण शक्ति उनको संतुष्ट नहीं कर सकती थी और असाधारण शक्ति तो आराधना के बिना मिला नहीं करती। राजकुमारों ने कठोर तप किया। उनके तप से, उनकी निष्ठा से भगवान आशुतोष सन्तुष्ट होकर प्रकट हुए। उनसे वरदान माँगने को कहा। दोनों ने प्रार्थना की- 'देव हमने पाँच वर्ष तक कठिन तप किया है, अतः यदि आप संतुष्ट हैं तो हमें पाँच वरदान प्रदान करें।' भगवान शिव औढरदानी। उन्हें देते समय कब कोई सीमा सूझती है। उन्होंने माँगने को कह दिया। दोनों ने अपने वरदान गिनाये-
भगवान गंगाधर ने सभी वरदानों को 'एवमस्तु' कह दिया। वहीं अपने गणों में से भृड्गी, रिटि, कुण्डोदर तथा विरूपाक्ष को आदेश दे दिया कि युद्ध में वे इनकी सहायता करने पहुँच जाया करें। वरदान पाकर दोनों लौट आये अपनी राजधानी। वे भगवान नीललोहित के अनन्य भक्त थे। उनके भाल सदा त्रिपुण्ड भूषित रहते। उनका अंगराम भस्म थी और उनका आभरण अंगों में सजी रुद्राक्षमालायें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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