श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
82. यदुकुल को शाप
लीलामय की लीला- श्रीकृष्णचन्द्र के कुमार साम्ब, प्रद्युम्न, गद, भानु आदि द्वारिका से निकले। द्वारिका में श्रीकृष्णचन्द्र की उपस्थिति तथा कल्पवृक्ष के प्रभाव से किसी के शरीर में वार्धक्य नहीं आता था और इसलिए श्रीवसुदेव जी के पिता शूरसेन जी, महाराज उग्रसेन भी युवा की भाँति सशक्त, स्वस्थ थे। यह दूसरी बात है कि श्रीकृष्णचन्द्र के पुत्र बालक नहीं थे। इनमें से अधिकांश के पुत्रों के भी पुत्र हो चुके थे। प्रद्युम्न के पौत्र वज्रनाभ तो अब अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा भी प्राप्त कर चुके थे। उस समय द्वारिका के समीप पिण्डारक तीर्थ में[1] महर्षिगण आ गये थे। उनमें से विश्व प्रसिद्ध, सुरासुर पूजित अनेक महर्षि थे। सृष्टि करने में समर्थ विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, ब्रह्मपुत्र भृगु और अँगिरा, प्रजापति कश्यप, वामदेव, त्रिदेवों को पुत्रत्व देने वाले अत्रि, ब्रह्मर्षि वशिष्ठ तथा देवर्षि नारद जैसे त्रिभुवन विख्यात महर्षिगणों का यह समूह उस क्षेत्र में अकस्मात तीर्थ स्नान के लिए एकत्र हो गया और जब ऋषि-मुनि या साधु-सन्त एकत्र होंगे तो वहाँ भगवच्चर्या, तत्त्व-निरूपण अथवा धर्म व्याख्या ही परस्पर होगी। सत्संग प्रारम्भ होने पर फिर जिन्हें समय का बन्धन नहीं, सृष्टि में कहीं कोई प्रयोजन नहीं वे शीघ्रता क्यों करेंगे। ऋषिगण स्नानादि करके वृक्षों की छाया में बैठ गये थे और परस्पर सत्संग प्रारम्भ हो गया था। यदुकुल के कुमारों के लिए कोई कार्य नहीं था। प्रजा के पालन, रक्षण तथा निरीक्षण का कार्य श्रीबलराम, श्रीकृष्ण करते ही थे। यादव महासभा सुधर्मा में बैठना इनके लिए संकोच में डालने वाली बात थी क्योंकि वहाँ पिता-पितामह आदि गुरुजन उपस्थित रहते थे। अतः कुमारों का अधिकांश समय क्रीड़ा-विनोद में ही व्यतीत होता था। वे अश्व-क्रीड़ा, कन्दुक-क्रीड़ा आदि के लिए प्रायः नगर से बाहर निकल जाया करते थे। उस दिन भी यादव कुमार नगर से बाहर क्रीड़ा के लिए ही निकले थे और इसी क्रम में पिण्डारक क्षेत्र में पहुँच गये थे। दूर से उन्होंने वहाँ महर्षियों को बैठे देख लिया था। बालक हो या वृद्ध, अनेक लोग जब लगभग एक आयु के एकत्र हो जाते हैं और उनमें परस्पर मैत्री होती है तो परिहास, विनोद क्रीड़ा सूझती ही है और वे युवक या तरुण हो तब तो पूछना ही क्या? यादव कुमारों ने महर्षिगणों को देखा। उनमें-से अनेक इनके जाने-पहिचाने थे। एक ने प्रश्न उठाया- 'हम उनसे पूछेंगे क्या?' ऋषि-मुनि मिल जायें तो उनसे कुछ पूछना चाहिए, यह बात सबके मन में अकारण नहीं आ गयी। यह परम्परा उन्होंने बार-बार द्वारिका में देखी थी। यह एक शिष्ट परम्परा है कि अपने से अधिक विद्वान, अनुभवी प्राप्त हो जायँ और प्रश्न करने के लिए अवसर हो तो कुछ पूछना चाहिए। यह प्रश्न करना जहाँ अपने लिए ज्ञान अनुभव का दाता है, वहीं विद्वान अनुभवी की विद्या तथा अनुभव का सत्कार भी है। इससे वह सम्मानित होता है। द्वारिका में ऋषियों के आने पर वसुदेव जी, महाराज उग्रसेन तथा स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र प्रदानकर्ता बन जाया करते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज