श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
38. द्विविद-दलन
जिनके स्वजन मारे जा चुके उन निरीह राक्षसस्त्रियों के साथ अन्याय सुनकर श्रीरामानुज उग्र हो उठे- 'इस अधम को मार देना चाहिए।' 'अभी नहीं।' श्रीराघवेन्द्र ने भाई को रोका- 'तुम इसे मार देना, किन्तु इस समय नहीं। अभी हम कपि-समूह के उपकृत हैं। इनका औद्धत्य भी सहन करना चाहिए हमें।' उन सत्संकल्प का संकल्प, उन लंका की उत्पीड़िताओं का अभिशाप- द्विविद की सन्देहशीलता ने उसे बहिर्मुख बना दिया। वह भोगपरायण हो गया और भोगोन्मुखता स्वयं आसुरभाव है। समानशील-व्यसन में ही मैत्री होती है। द्विविद की मैत्री नरकासुर से हो गयी। जो भगवान को त्यागकर भोग के पीछे भागेगा; भौम से-नरक से ही तो उसकी मित्रता होने वाली है। श्रीकृष्णचन्द्र ने जब नरकासुर को मार दिया, द्विविद को बहुत क्रोध आया। दिग्विजय यात्रा में दो बार प्रद्युम्न ने उसे पराजित करके बहुत दूर फेंक दिया। इससे भी उसका क्रोध बढ़ गया; वह श्रीकृष्णचन्द्र से युद्ध का साहस नहीं कर सका; किन्तु द्वारिका के आसपास उपद्रव करने लगा। वह मदोन्मत वानर- उसने आनर्त में प्रजा को असह्य पीड़ा देना प्रारम्भ कर दिया। छोटे नगरों में, ग्रामों को, झोंपड़ी वाले घोष-निवासों को अग्नि लगाकर जला देता था। कभी पर्वत का शिखर उखाड़कर किसी जनपद पर पटक देता। वहाँ के मनुष्य पशु सब दब मरते। कभी समुद्र में खड़ा हो जाता और दोनों हाथों से इतना जल उलीचता कि समुद्र-तटीय ग्राम बह जाते। द्विविद कुसंग से असुर हो गया था। वह प्रधान-प्रधान ऋषियों के आश्रमों में चाहे जब पहुँच जाता और वहाँ के वृक्षों को तोड़ डालता। ऋषियों के हवन-कुण्ठ में मल-मूत्र त्याग करके उन्हें अपवित्र कर आता। पता नहीं कितने स्त्री-पुरुषों को जब वे एकाकी मिले, दुष्ट वानर उठा ले गया और गुफा में डालकर भारी शिला द्वारा गुफा द्वार बन्द कर दिया उसने। वे भूखे-प्यासे वहीं मर गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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