श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
10. महारानी मित्रविन्दा
श्रीकृष्ण नहीं आते, यह कैसे हो सकता था। कोई हृदय पुकारे उन्हें और वे न आवें। राजकन्या मित्रविन्दा का हृदय कब का उनका हो चुका था। वह दृढ़ विश्वास किये बैठी थी कि वे नव जलधर सुन्दर आवेंगे ही। श्रीकृष्ण भला आते क्यों नहीं। राजकन्या ने देख लिया कि उसके हृदयेश्वर कहाँ बैठे हैं। वह सीधे उसी ओर बढ़ी। उसे अब न किसी दूसरे की प्रशस्ति सुननी थी, न किसी की ओर देखना था। किसी को इसमें कुछ अद्भुत नहीं लगा। सब पहिले से समझ चुके थे कि यही होना है। 'उधर नहीं! महाराज सुयोधन इस ओर विराजमान हैं।' विन्द और अनुविन्द दोनों भाई दौड़े और बहिन के सामने मार्ग रोककर खड़े हो गये। उन्होंने तो राजकन्या के आने के मार्ग के पार्श्व में ही सुयोधन को आसन दिया था। वे चाहते थे कि उनकी बहिन महाराज की प्रशस्ति सुनकर वरमाला डाल दे उनके गले में, किन्तु यह तो उनकी ओर देखे बिना बढ़ चली और कहाँ जा रही है, यह अब किसी से छिपा नहीं है। 'यह सबका अपमान है- हम सबका।' एक साथ अनेक युवक राजकुमार आसनों से उठ खड़े हुए और उन्होंने तलवारें खींच लीं- 'आप दोनों को किसी विशेष को ही बहिन व्याहनी थी तो उसे बुलाकर विवाह देते। मना किसने किया था आपको? स्वयंवर सभा में राजकन्या को रोका नहीं जा सकता। वे जिसके चाहेंगी- उसका वरण करेंगी।' राजकुमारी मित्रविन्दा भी स्थिर खड़ी थीं। वह लौटने को प्रस्तुत नहीं थीं। वह दृढ़ निश्चय कर चुकी थीं- इस अल्प क्षण में कि दूसरे किसी के गले में वे माल्यार्पण नहीं करेगी। सहसा श्रीकृष्णचन्द्र उठे और आगे बढ़कर उन्होंने राजकन्या को भुजाओं में उठा लिया। उसे लेकर स्वयंवर सभा से बाहर निकल गये और अपने रथ पर बैठा दिया। यादव शूर धनुष चढ़ा चुके थे। उन्होंने हुँकार की- 'जिसमें शक्ति हो, प्रतिवाद कर देखे।' 'अपने अपमान का उचित प्रतिकार किया श्रीकृष्ण ने।' अधिकांश राजकुमार समर्थन करने लगे। दुर्योधन शान्त उठ गये। गरुड़ध्वज रथ जा चुका था। अब तो द्वारिका दहेज भेजना था जहाँ विवाह के पश्चात मित्रविन्दा श्रीकृष्ण की महारानी बनने वाली थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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