श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
45. व्रजराज-विदा
धृतराष्ट्र, विदुर, पांडव, भीष्म, द्रोणाचार्य, कुन्ती देवी, गांधारी, कृपाचार्य प्रभृति रुक सकते थे। इन्हें दूर नहीं जाना था किन्तु देवर्षि नारद तथा भगवान व्यास की सम्मति से ये भी विदा हुए। कुरुक्षेत्र के मैदान में अब ग्रीष्म का पूरा प्रकोप हो चुका था। पश्चिमी तप्त वायु सबके लिए कष्टकर थी। सघन वृक्षों का आश्रय सबको सुलभ नहीं था। यादवों तथा व्रज के शिविर ही सघन वृक्षावलियों में थे। अतः जिनको उत्तम भूमि पर आवास बनाना पड़ा था उनको जाने की शीघ्रता होनी ही चाहिए थी। विदा होने का यह क्रम चल रहा था और इसमें दिनों का अन्तर भी बहुत कम था क्योंकि वैशाख अमावस्या को तो ग्रहण ही था। यज्ञ में लग गये पच्चीस दिन। अब पावस समीप आ गया था। वर्षा प्रारम्भ हो जाने से पूर्व सबको अपने यहाँ पहुँचने की शीघ्रता थी। वर्षा में मार्ग यात्रा योग्य नहीं रहते। सब विदा हो गये किन्तु व्रज तथा द्वारिका के शिविर बने रहे। उत्सव का अन्त, मेले के अन्त के दिन बहुत उदास होते हैं। लेकिन इन दोनों शिविरों के जनों को बाहर से समीप के दृश्य से प्रयोजन ही कहाँ था। ये परस्पर मिलन में मग्न, क्षण-क्षण सत्कार के नवीन आयोजन, वियोग की कल्पना भी असह्य थी, दोनों ही समाजों को। वियोग चाहे जितना भी असह्य हो, संसार का विधान ही इतना निष्ठुर है कि इसमें प्रियजनों का सदा सामीप्य संभव नहीं होता। वियोग अनिवार्य है यहाँ। व्रजराज को विदा ही करना था और वसुदेव जी ने ही इस कठिन कार्य को विवश होकर अपनाया। पावस की वर्षों से पूर्व व्रज पहुँच जाना चाहिए व्रजराज को अन्यथा मार्ग में बहुत कष्ट होगा, यह मुख्य बात थी। 'भाई। मनुष्यों का यह स्नेह-बन्धन ईश्वर ने ही बनाया है और इसे काटने में योगी भी समर्थ नहीं हो पाते। श्रीवसुदेव जी फूटकर रो पड़े- 'भाई, मैं जन्म-जन्म के लिए आपका ऋणी ही रहूँगा। आपका कुछ भी प्रत्युपकार, आपने जो बन्धुत्व, अहैतुक सौहार्द्र दिया, उसका किंचित भी प्रत्युपकार करने की क्षमता कहाँ मुझमें।' श्रीव्रजराज ने भुजाओं में भर लिया वसुदेव जी को। उनके नेत्रों से भी अश्रु चलने लगे। इस प्रकार कहीं विदा हुआ जा सकता है। व्रजराज सोचते हैं- 'कल चले जायेंगे। एक बार और अपने दाऊ-कन्हाई को जी भरकर देख लें।' छकड़े जुत जाते हैं या जुड़ने लगते हैं तभी किसी दिन मैया कह देती है- 'अब आप रहने दो कल चलेंगे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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