श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
79. रुक्मिणी-वियोग
श्रीकृष्णचन्द्र ने दिगम्बर होकर महर्षि दुर्वासा जी की आज्ञा से उनका उच्छिष्ट पायस अपने सर्वाङ्ग में मल लिया था। आपाद मस्तक खीर लगाये श्रीद्वारिकाधीश का वह स्वरूप देखकर महारानी रुक्मिणी को हँसी आ गयी। महर्षि दुर्वासा ने देख लिया और क्रोधपूर्वक बोले- 'तुम ब्राह्मण के प्रसाद में स्नात अपने स्वामी को देखकर गौरव का अनुभव नहीं करतीं, हँसती हो? मेरे प्रसाद का परिहास करती हो? तुम्हें श्रीकृष्ण की पट्ट-महिषी होने का अभिमान हो गया है? जिस प्रसाद को ये जनार्दन इतनी श्रद्धा से अपने संपूर्ण श्रीअंग में धारण किये हैं, उसी की तुम अवेहलना करती हो? तुम अपने को इनके उपयुक्त सहधर्मिणी सिद्ध नहीं कर सकीं, अतः तुमको इनसे वियुक्त होकर रहना पड़ेगा।' महर्षि का शाप सुनते ही महारानी तो चीत्कार करके भूमि पर गिरी और मूर्च्छित हो गयी। श्रीकृष्णचन्द्र ने हाथ जोड़कर महर्षि के सम्मुख मस्तक झुकाया और प्रार्थना की- 'इनका अपराध आप क्षमा करें। इन्होंने प्रसाद का परिहास नहीं किया मुझे नग्न देखकर इन्हें हँसी आयी।' महर्षि दुर्वासा शिवांश संभव हैं। जहाँ वे क्रोध की मूर्ति हैं, तनिक से हेतु से उन्हें प्रचण्ड क्रोध आता है और किसी को भी शाप दे देते हैं वहीं वे आशुतोष भी हैं। उनका क्रोध क्षण स्थायी होता है। उनके संतुष्ट होने में भी विलम्ब नहीं होता। वे किसी का कोई भी अपराध देर तक स्मरण रखना जानते ही नहीं। महर्षि शान्त स्वर में बोले- 'केशव! तुम जानते हो कि सृष्टि में अब तक मेरे शाप से किसी का अमंगल हुआ है?' श्रीकृष्ण ने श्रद्धा-भरति कण्ठ से स्वीकार किया- 'आपके शाप ने सदा प्रशप्त को वह अभ्युदय प्रदान किया है जो उसके अपने साधन से, उद्योग से, अधिकार से उसे कभी प्राप्त नहीं हो सकता था। यह तो आपका ही महामांगल्यशील है कि क्रोध का बहाना बनाकर स्वयं अपयश वरण करके सम्मुख आये प्राणी को अपने कठिनतम तप का प्रसाद वितरण करते विचरण करते हैं।' महर्षि ने बतलाया- 'अब जो कुछ द्वारिका में होने वाला है उसे तुम्हारी इन नित्य महिषी का सुकुमार हृदय सहन नहीं कर सकेगा। तुम इन्हें केवल यह बतला देना सचेत होने पर कि यदि इन्हें विवश होकर तुम्हारा वियोग स्वीकार करना पड़ा तो वह द्वादश वार्षिक होगा और यदि स्वेच्छा से उसे इन्होंने स्वीकार कर लिया तो वह केवल द्वादश मास के लिए ही होगा। अब तुम इन्हें सँभालों और स्नान करो। मैं जा रहा हूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज