श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. नरक-निधन
भू-देवी ने तभी प्रार्थना की थी नारायण से- 'आप इसका वध मत करना।' नरक-भूमि पुत्र मानव की ही सृष्टि है नरक। मानव जब अपने को भूल जाता है- असुर बन जाता है, नरक का सृजन करता है। केवल नारायण नरक का नाश कर सकते हैं। उकना स्मरण ही नरक से त्राण देता है। सुरों के लिए-इन्द्रियों के सभी अधिदेवताओं के लिए नरक त्रासदायी है और दुर्जय है। वे उससे पार नहीं पा सकते। नरकासुर भूमि-पुत्र। उससे बड़ा वैज्ञानिक पृथ्वी ने दूसरा नहीं दिया। भूदेवी ने अपने सब रहस्य अपने पुत्र को दे दिये और इससे वह सुरों के लिए अजेय हो गया। पर्वतों को कोई पार भी कर ले तो उसे आहट मात्र से प्रहार करने वाले शस्त्रों का दुर्ग मिलता। उसके बाद शब्द मात्र से आघात करने वाले यन्त्र-अस्त्र चारों ओर पंक्तिबद्ध लगे थे। उनके घेरे के भीतर ये जल, अग्नि और विषैली वायु की घूमती भित्तियाँ थीं। इनके भी भीतर मुड़े हुए काँटेदार तारों का ऐसा जाल था जो स्पर्श करने वाले को जकड़कर मार दे। इस जाल के बाद चौड़ी जल भरी खाई थी और नगर रक्षक पंचसिर वाला दैत्य मुर उस खाई के जल में ही भवन बनाकर निवास करता था। खाई के भीतर नरकासुर की राजधानी थी। उसके चार द्वार ये और उन द्वारों के चार रक्षक थे- हयग्रीव, निसुन्द, विरूपाक्ष और पंचक। पौण्ड्रक मित्र था भौमासुर का। जब से उसे श्रीकृष्ण ने मार दिया था; तब से ही भौमासुर भयभीत हो गया था। यह पृथ्वी के भीतर दुर्भेद्य मूर्तिलिंग[1] बनाकर उसमें रहने लगा था। उस तक तो किसी की पहुँच सम्भव ही नहीं थी, उसके नगर में भी किसी देवता का पहुँचना संभव नहीं था। इस नरकासुर को एक व्यसन था। उसने सोच रखा था कि वह एक लक्ष कुमारी कन्याओं से एक साथ विवाह करेगा। जहाँ भी किसी सुन्दरी कन्या का समाचार मिलता- वह कोई न कोई रूप बनाकर उसका हरण कर लेता था। देवता, गन्धर्व, किन्नर, मनुष्य, नाग, यक्ष आदि की कन्याओं का हरण किया उसने। प्रजापति त्वष्ट्रा की चतुर्दश वर्षीया कन्या कशेरु तक को हाथी का रूप बनाकर पकड़ लाया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शिवलिंगाकार गुफा
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