17. पिशाचोद्धार
'नारी की सफलता उसके मातृत्व में है और उसकी सार्थकता है उसके पातिव्रत्य में।' देवी रुक्मिणी ने एक दिन एकान्त में अपने स्वामी के चरण दबाते हुये सलज्ज भाव से प्रार्थना की- 'आपने कृपा करके इन श्रीचरणों में स्थान देकर मुझे कृतार्थ कर दिया; किन्तु.....।'
तुम अपना अभीष्ट बिना संकोच बतला दो। मैं उसे पूर्ण करने का प्रयत्न करूँगा। श्रीकृष्णचन्द्र ने आश्वासन दिया।
'आप देवदेवेश्वर हैं। आपका पुत्र आपके अनुरूप सुन्दर, बलवान, शास्त्रज्ञ, सत्पुरुषों में श्रेष्ठ, वृष्णिवंश में अग्रणी होना चाहिये।' रुक्मिणी जी ने मस्तक झुका लिया- 'ऐसा आनन्ददायक पुत्र मेरे अंक में आवे, यह अभिलाषा किसे नहीं होगी।'
'अच्छा देवी!' श्रीकृष्णचन्द्र ने स्वीकार किया- 'किन्तु इसके लिये मुझे भगवान आशुतोष को संतुष्ट करने कैलास जाना है।'
प्रातःकाल यादव राजसभा की अंतरंग की बैठक बुलायी गयी।
श्रीकृष्ण ने कहा- 'मैं सन्तान प्राप्ति के लिये तप करने कैलास जाना चाहता हूँ। आप सब अनुमति दें।'
इसमें कोई अस्वीकार कैसे करता।
श्रीद्वारिकाधीश ने कहा- 'नरकासुर का सखा पौण्ड्रक मुझसे द्वेष रखता है। वह पुण्ड्र नरेश द्रोणाचार्य का शिष्य है। ब्रह्मास्त्र उसे प्राप्त है। द्वारिका पर वह न चढ़ आवे, उसे सावधानी आवश्यक है। यह बात इस अन्तरंग सभा से बाहर नहीं जानी चाहिये कि मैं द्वारिका में नहीं हूँ। मेरे लौटने तक नगर का एक ही बड़ा द्वार उपयोग में लिया जाय। शेष द्वार बन्द रहें। आखेट तथा नगर से बाहर जाकर क्रीड़ा सबके लिये निषिद्ध रहे। राजमुद्र रहित व्यक्ति को बाहर जाना हो, कारण बतलाकर राजमुद्रा लेकर ही जावे। कोई अन्य स्थान से आवे तो उसे रक्षित अतिथि-गृह में ठहराया जाय और आर्य अथवा महाराज से उसके मिलने में बिलम्ब किया जाय- जब तक मैं न आऊँ। जो मुझसे मिलना चाहें उन्हें कह दिया जाय कि मैं अनुष्ठान विशेष में होने से मिल नहीं सकता।'
श्रीबलराम जी तथा उद्धव पर विशेष भार डालकर नगर-रक्षा का सात्यकि से बोले- 'तुम रात्रि-शयन, शास्त्र-चिंतन, वाद-विवाद तथा क्रीड़ा इन दिनों छोड़ दो और केवल नगर-रक्षा पर ही ध्यान रखो।'
इस प्रकार उत्तरदायित्व उचित व्यक्तियों पर डालकर सायंकाल के समय अन्धकार हो जाने पर श्रीकृष्णचन्द्र गरुड़ पर विराजमान हुए और कुछ क्षणों में ही विनतानन्दन ने उन्हें श्रीबदरीनाथ में उतार दिया।
बदरी क्षेत्र नित्य नर-नारायण की तपस्थली है। तपस्वियों के लिये सदा से आकर्षण केन्द्र। वहाँ की भूमि कभी उत्कृष्ट ऋषियों, साधकों, तपस्वियों से रिक्त नहीं रही। श्रीकृष्ण का स्वागत किया ऋषियों ने। उनका सत्कार स्वीकार करके वे हृषीकेश स्नान करके भगवती अलकनन्दा के उत्तर तट पर रायणाश्रम में जाकर ध्यान करने बैठ गये।
सहसा वहाँ बड़ा भयंकर कोलाहल होने लगा- 'इन मृगों के पीछे जाओ। इनको यहाँ हाँक लाओ। इनको मार डालो।'
सिंह दहाड़ने लगे। मृगों के पीछे दौड़ते कुत्ते भौंकने लगे। रीछ-व्याघ्र चिल्लाने, हाथी चिंग्घाड़ने लगे। श्रीकृष्णचन्द्र का ध्यान भंग हुआ। उस कोलाहल में यह भी सुनाई पड़ा- 'भगवान जनार्दन की जय। देव देवेश्वर भक्तवत्सल पुरुषोत्तम की जय। करुणावरुणालय केशव धन्य हैं!'
श्रीकृष्णचन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ- 'इस पावन तपोभूमि में आखेट जैसा क्रूर कर्म भी और मेरा जयघोष- स्तवन भी।' इतने में भागते पशु शरण पाने वहाँ आये। उनके पीछे लगा कुत्तों का समूह भी आया। सैकड़ों जलती मशालें लिये विकराल मुख पिशाच, भूत, प्रकट हुए। करालाकृति पिशाचिनियाँ भी आयीं। वे मारे हुए पशुओं को कच्चा चबा रहे थे।
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