श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
13. सुलक्षणा-लक्ष्मणा
देवर्षि आते और उनको तो व्यसन ही एक है- अपने आराध्य श्रीनारायण के गुणगान, उनकी ललित लीलाओं का, उनकी महिमा का वर्णन और अब देवर्षि कहते थे- 'वे जगत्कारण-कारण प्रभु अब द्वारिका में विराजमान हैं।' मद्र नरेश निमग्न हो जाते भगवद-गुणानुवाद श्रवण में। देवर्षि को कहाँ स्वागत सत्कार अपेक्षित है। उन्हें तो श्रद्धालु श्रोता चाहिये। वे इधर-उधर घूमघाम कर प्रायःमद्र आ जाते थे और जब आते थे, जमकर श्रीकृष्ण चर्चा- इस चर्चा से महाराज वृहत्सेन का समस्त परिवार परिपूत होता रहता था। राजकुमारी लक्ष्मणा- मद्र नरेश की एकमात्र पुत्री और इतनी सुन्दर, इतनी सुलक्षणा कि इन्द्र, अग्नि प्रभूति लोकपालों तक ने महाराज से उसके लिये याचना की, किन्तु महाराज को सभी प्रार्थी लोकपालों को निराश करना पड़ा क्योंकि अपनी इकलौती पुत्री के मन के विपरीत उसका विवाह किसी से कैसे कर देते वे। राजकुमारी लक्ष्मणा ने देवर्षि के मुख से बार-बार श्रीकृष्णचन्द्र का गुणगान सुना। जिनके अतिरिक्त त्रिभुवन में दूसरा वर भगवती पद्मा को नहीं दीखा, वही मुकुन्द बस गये राजकुमारी के भी मानस में। 'वत्से! देवाधिप इन्द्र, भगवान हव्यवाहन, जलाधीश वरुण याचना करते हैं तुम्हारी।' 'पिताजी, जब समुद्र-मन्थन के समय देवी पद्मा प्रकट हुई, तब भी सब लोकपाल उनके पाणि-प्राप्ति को लालायित हुए थे।' राजकुमारी ने संकेत में अपनी बात कह दी- 'भगवती रमा ने जो दोष दूसरों में उस समय देखे थे, वे किन्हीं-में-से दूर हो गये अब? उन अब्धिजाने जिन्हें निर्दाेष निखिल गुणगणार्णव माना था, वे अब निष्करुण हो गये?' 'वे करुणावरुणालय कभी निष्करुण नहीं होते पुत्री।' महाराज वृहत्सेन का स्वर प्रेम विह्वल हुआ- 'तू धन्य है कि तेरा चित्त उनके श्रीचरणों में लगा। वे तो अब धरा पर द्वारिका में ही विराजमान हैं।' भक्ति देवी का स्वभाव है कि वे जिस हृदय में पधारती हैं, उसे उज्ज्वल, द्रवित करने के साथ अत्यन्त विनम्र बना देती हैं। महाराज वृहत्सेन को लगता ही नहीं था कि वे श्रीद्वारिकाधीश से अपनी कन्या के परिणय की प्रार्थना कर सकते हैं। उन्होंने उपाय सोचना प्रारम्भ किया। उनके मन्त्री, कुलगुरु सब मिलकर सोचने लगे। 'महाराज द्रुपद ने धनंजय को पाने की इच्छा से अपनी पुत्री के स्वयंवर में मत्स्यवेध का नियम रखा था।' कुलगुरु ने कहा- 'पार्थ के अतिरिक्त दूसरा कोई उस मत्स्य का वेधन नहीं कर सका। ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता कि अर्जुन भी मत्स्यवेधन न कर सकें। तब वह लक्ष्य सर्वसमर्थ श्रीकृष्ण के अतिरिक्त दूसरे किसी के लिये भी असाध्य हो जायेगा।' बात सबको सुगम लगी और राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर की घोषणा कर दी गयी। सर्वत्र लक्ष्यवेध-समर्थ मानने वालों को चर भेजकर चुनौती दे दी गयी। सौन्दर्य एवं सदगुणों से युक्त ऐसी सुलक्षणा कन्या जिसके पाणि-प्रार्थी लोकपाल भी बनें, उसे पाने को कौन उत्सुक नहीं होगा। अपने को बलवान धनुर्धर समझने वाले राजकुमार एवं राजा देश-देश से आने लगे। उनका यथोचित सत्कार हुआ। उन्हें उचित आवास मिला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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