श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
13. सुलक्षणा-लक्ष्मणा
महाराज वृहत्सेन ने सब कठिनाइयाँ एकत्र कर दी थीं। धनुष असाधारण, विशाल और कठोर था। यन्त्रस्थमत्स्य ऊपर दीखता ही नहीं था। यन्त्र बहुत वेग से घूमता था। जल में भी कठिनाई से पता लगता था कि यन्त्र के पीछे मत्स्य कहाँ है। मत्स्य का वेधमात्र नहीं करना था, उसे काटकर गिरा देना था और यह करने के लिये भी केवल एक शर रखा था। आगत नरेश और राजकुमार चाहते थे कि राजकुमारी रंग-स्थल में प्रथम आ जावें, किन्तु मद्र नरेश ने यह भी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कह दिया-'राजकन्या केवल लक्ष्यवेध-सफल पुरुष को जयमाला पहिनाने आवेंगी रंगस्थल में।' बड़ी संख्यायें ऐसे लोगों की निकलीं जो धनुष उठा ही नहीं सके। उनकी अपेक्षा कम लोग ऐसे थे जिन्होंने धनुष उठा लिया; किन्तु उसे झुकाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने में असफल रहे। धनुष उनसे झुका ही नहीं। ऐसे लोगों की अपेक्षा छोटा दल था जिन्होंने धनुष झुकाया, प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयत्न किया, किन्तु धनुष के दबाव से स्वयं दूर जा गिरे। ऐसे लोगों के गिरने पर हास्य गूँजता रहा। स्वाभाविक है कि ऐसे प्रतिस्पर्धा के स्थलों पर जो वीर हैं वे दुर्बलों को प्रथम अवसर देते है। अपेक्षाकृत दुर्बल समुदाय जब निराश हो गया, प्रख्यात शूर क्रमशः उठने लगे। जरासन्ध, दन्तवक्र, शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन और अन्त में महाधनुर्धर कर्ण उठे। इन सबने धनुष उठा लिया और झुकाकर प्रत्यंचा भी चढ़ा दी; किन्तु कर्ण तक को बहुत देर तक देखने पर भी पता नहीं लगा कि तीव्रगति से घूमते यन्त्र के पीछे मत्स्य कहाँ है। 'आप तो भोजन के समय और गदा उठाये ही सुशोभित होते हो।' भीमसेन उठे थे और जब धनुष की प्रत्यंचा उतारकर उसे रखकर लौटने लगे तो कर्ण ने व्यंग किया था; किन्तु जब कर्ण को भी वैसे ही निराश लौटना पड़ा, भीमसेन ने हँसकर कह दिया- 'सूतपुत्र करों में धनुष की शोभा नहीं है। रथ-रश्मि लेने पर सुशोभित होंगे वे।' कर्ण निराश बैठ गये तो अर्जुन उठे। धनुष को ज्या सज्ज करके उन्होंने जल में देखा। मत्स्य कहाँ है, यह वे ठीक समझ गये। अत्यन्त स्थिरता, एकाग्रता से वे जल में देखने रहे थे और तब बाण छोड़ दिया था उन्होंने। उनका बाण यन्त्र में होकर मत्स्य को स्पर्श करता काष्ठ में धँस गया। घूमता यन्त्र स्थिर हो गया। निर्णायकों ने जाकर देखा। बाण निकालकर यथा स्थान पर रख दिया। धनुष की प्रत्यंचा उतारकर पार्थ भी अपने आसन पर मस्तक झुकाये बैठ गये जाकर। 'और कोई?' वन्दी ने पुकारा। जब गाण्डीव धन्वा ही सफल नहीं हुए तो अब दूसरा कौन उठता। सम्पूर्ण राजसभा निस्तब्ध रह गये। तभी श्रीकृष्णचन्द्र उठे। 'गोविन्द! तुम लक्ष्यवेध कर दो तो मेरी पराजय भी मुझे विजय से अधिक उल्लास देगी।' अर्जुन ने उठकर अपने सखा से कहा। हँसकर अभिनन्दन-ग्रहण किया श्रीद्वारिकानाथ ने। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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