श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
60. पाण्डव समस्या
'पांडवों का क्या होगा? यह प्रश्न सुभद्रा के द्वारिका में आते ही सबके सम्मुख आ गया। स्पष्ट था कि उनके साथ अन्याय हुआ है। यह संभावना भी किसी को नहीं थी कि जब वे वनवास की अवधि पूर्ण करके लौटेंगे तो दुर्योधन उन्हें उनका राज्य लौटा देगा। उन्हें अपना स्वत्व प्राप्त करने के लिए युद्ध करना ही पड़ेगा, यह सुनिश्चित तथ्य था। जब युद्ध करना ही है तो शत्रु के साथ छल से करायी गयी प्रतिज्ञा का क्या अर्थ? शत्रु को अपना पक्ष प्रबल करने का अवसर क्यों दिया जाय? अभी प्रजा पांडवों के पक्ष में है, किन्तु लोकमानस किसी के भी उपकार को अधिक काल तक स्मरण नहीं रखता। तेरह वर्ष के दीर्घकाल में लोग युधिष्ठिर को भूल जायेंगे यही तो दुर्योधन को अभीष्ट है। सबसे अधिक क्रोध था भगवान बलराम को कौरवों की दुष्टता पर और यह इसलिए भी था कि उनकी सबसे अधिक स्नेह भाजना बहिन तथा भागिनेय अपने स्वत्व से वंचित कर दिये गये थे। पांडवों ने द्यूत में हारकर वनवास स्वीकार कर लिया था। उनके विरुद्ध अन्याय हुआ है, इस प्रकार की कोई बात उन्होंने नहीं कही। अतः दूसरे संबंधियों को कितना भी रोष आये, कुछ करने की स्थिति नहीं थी। दुर्योधन द्यूत में विजयी होकर ही संतुष्ट नहीं था। वन में भी पांडवों को उत्पीड़ित करने के प्रयत्नों में लगा था और जब पता लगा कि महर्षि दुर्वासा को सशिष्य धर्मराज के यहाँ उसने आतिथ्य ग्रहण करने भेजा था तो श्रीसंकर्षण के लिए चुप बैठे रहना अशक्य हो गया। उन्होंने सुधर्मा सभा में प्रश्न उठाया– 'पाण्डव हमारे संबंधी हैं, भाई हैं और उन्हें दुर्वासा जी से शाप दिलाकर नष्ट ही कर देने का प्रयत्न किया गया। हम यह अन्याय कब तक चुपचाप सहन करते रहेंगे?' 'आप आदेश करें।' सात्यकि को तो बहुत अधिक क्रोध था दुर्योधन पर। वे अपने शस्त्र शिक्षा गुरु धनंजय के सदा से प्रबल समर्थक हैं। अतः सबसे पहिले वे उठे– 'हम दुर्योधन को उचित दण्ड देने में असमर्थ नहीं हैं।' 'ये श्रीकृष्ण क्यों चुप हैं?' श्रीबलराम ने छोटे भाई की ओर देखा। 'हम कर भी क्या सकते हैं?' श्रीकृष्णचन्द्र ने शांत स्वर में कह दिया- 'युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं और भाईयों के साथ उन्होंने स्वेच्छा से द्यूत में हुए नियम को स्वीकार किया है। अब अवधि की प्रतीक्षा तो हम कर सकते हैं।' 'द्यूत में जो कुछ निश्चित हुआ था मैंने भी उसे सुना है।' श्रीबलराम रोष भरे स्वर में बोल रहे थे- 'धृतराष्ट्र ने पांचाली को संतुष्ट करने के लिए, उसके अपमान के प्रतिशोध के रूप में पांडवों को दासत्त्व से मुक्त करके राज्य तथा कोष भी लौटा दिया था। पांडव द्यूत-सभा से उठकर जा रहे थे। उन्हें फिर बुलाया गया और द्यूत के अन्तिम दाव में यही तो नियम था कि जो हार जायगा, वह बारह वर्ष वनवास स्वीकार करेगा और एक वर्ष का अज्ञातवास करेगा?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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