श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. संकर्षण स्वधाम को
देवता जीव ही होते हैं। भले वे पुण्यकर्मा जीव हों, शरीर उनका भी पांचभौतिक ही होता है। यह दूसरी बात है कि उनके शरीर में पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता न होकर अग्नि-तेज से तत्त्व की प्रधानता होती है। देवता जब संसार में आते हैं, केवल दो रूप में आ सकते हैं। एक तो वे देवरूप में प्रकट होते हैं। इस रूप में धरा का स्पर्श नहीं करते और यहाँ अधिक देर नहीं रह सकते। दूसरे रूप में वे किसी को माध्यम बनाकर सामान्य जीव की ही भाँति जन्म धारण करते हैं। पुण्य-क्षय होने पर स्वर्ग से च्युत होकर जीव संसार में जन्म ले यह भिन्न बात है और देवता अपने अंश से या पूर्ण रूप से स्वेच्छापूर्वक जन्म धारण करें यह भिन्न बात है। स्वेच्छापूर्वक जन्म धारण करने पर उनमें बहुत कुछ देवत्व, बहुत-सी अति मानव शक्तियाँ बची रहती हैं किन्तु धरा पर जन्म लेने पर पार्थिव देह ही मिलता है और इस देह की शक्ति सीमा है। इस देह का त्याग भी सामान्य ढंग से ही होता है। श्रीकृष्णचन्द्र के अवतार के पूर्व और पश्चात भी अपने ही प्रयोजन से भू भार की निवृत्ति तथा असुर जो नरेश रूप में धरा पर जन्म ले चुके थे उनके संहार में सहायक होने के लिए देवताओं को यदुकुल में अपने अंश से जन्म लेना पड़ा। उनका यह प्रयोजन पूरा हो गया तो उन्हें धरा से जाना चाहिए था। जीव का अद्भुत स्वभाव है। वह जब जिस शरीर में रहता है उसी से मोह कर लेता है। वह हीन देह भी नहीं छोड़ना चाहता। रोगी, वृद्ध भी मरना नहीं चाहते। विश्व के संचालक को समय पर जीव से उसका शरीर छुड़ाना पड़ता है। देवता जीव ही हैं अतः अंश से जब उन्होंने मानव वंश में जन्म लिया तो इन शरीर में उनका मोह होना स्वाभाविक हो गया। शरीर की अंहता, ममता उनमें आ गयी। लेकिन यह उनकी प्रारब्ध प्राप्त मानव योनि तो थी नहीं। यह तो उनका स्वेच्छा स्वीकृत सप्रयोजन शरीर था। अतः प्रयोजन पूर्ण होने पर अपने शेष पुण्यभोग के लिए उनको उनके लोकों को भेजा ही जाना चाहिए था। यह यदुवंश के विनाश का युद्ध इसका निमित्त बना। इसके द्वारा यदुवंश में अवतीर्ण देवताओं को उनके पार्थिव देह से विमुक्त कर दिया गया। श्रीकृष्णचन्द्र के धरा पर पधारने से पूर्व जो अनन्त अवतीर्ण हुए थे उन्हें उन पुरुषोत्तम से पूर्व ही स्वधाम पहुँचना था क्योंकि वे तो इनकी सेवा में, क्रीड़ा में सदा पहिले से ही प्रस्तुत रहने वाले है और अब धरिणी पर तो लीला का उपसंहार होना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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