श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
83. उपसंहार का अनुरोध
सबको बड़ों का संरक्षण एवं उनकी आपत्ति में सहायता चाहिए किन्तु बड़ों का सदा सन्निकर्ष वांछित नहीं होता क्योंकि गुरुजनों के समीप अपनी स्वतन्त्रता पर अंकुश रहता है और अपने व्यवहार को बहुत कुछ नियन्त्रित रखना पड़ता है। इसलिए बड़ों को भी उचित होता है कि अनुगतों के सदा सिर पर ही सवार न रहें। व्यक्ति के जीवन को यही बात समष्टि के सम्बन्ध में भी सत्य है। यहाँ भी दिव्य शक्ति का, भगवन का संरक्षण तो अभीष्ट है किन्तु उनका अवतार स्वरूप सदा बना रहे तो लोकपाल, दिक्पाल आदि सबकी शक्ति कुण्ठित हो जायगी। सबको अवतार काल में भगवान की मर्यादा का ध्यान रखकर व्यवहार करना पड़ता है। अतः अवतारकार्य पूर्ण हो जाने पर अवतार-विग्रह का तिराभाव आवश्यक है। जिससे देव-शक्तियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक अपना ऐश्वर्य भोगें और अपना कार्य करें। असुर - विनाश हो गया। महाभारत युद्ध के बहाने रहा-सहा भू- भार भी दूर हो गया। ऐसे समय भगवान ब्रह्मा दूसरे प्रजापतियों के साथ द्वारिका पधारे और एकान्त में गगन में रहते हुए ही उन्होंने श्रीकृष्णचन्द्र का स्तवन किया। जिनकी प्रार्थना के कारण अवतार हुआ था उन सृष्टिकर्ता को ही अवतार के उपसंहार की प्रार्थना भी करनी चाहिए थी। अतः उन हंसवाहन ने कहा -‘प्रभो ! धरा पर आपने अनुग्रह किया और पृथ्वी का समस्त भार दूर कर दिया। अब भूमि पर हम देवताओं का कोई कार्य सम्पन्न करना शेष नहीं रहा। पृथ्वी पर आपको अवतीर्ण हुए एक सौ पच्चीस वर्ष व्यतीत हो चुके। आपके इस यादव कुल को ऋषिगणों का दारुण शाप भी हो चुका है।’ ब्रह्माजी ने बड़े संकोचपूर्वक आगे कहा -‘आपकी सेवा के लिए देवताओं तथा देवियों अपने अंश पृथ्वी पर शरीर धारण किया। कार्य सम्पन्न हो जाने पर अब उन्हें भी अवकाश मिलना चाहिए अपने धाम जाने का। वे धरा पर रहें, ऐसा कोई कर्म प्रारब्ध नहीं है। हम सब भी उत्सुक हैं कि जब समय मिले आपके स्वधाम में ही आपके दर्शन करें। आप समर्थ हैं। आपकी इच्छा का ही हम अनुगमन करेंगे। इस सूचना की धृष्टता के लिए आप मुझे क्षमा करें।’ श्रीकृष्णचन्द्र हँसे -‘मुझे ज्ञात है कि देवकार्य सम्पन्न हो गया है किन्तु आप जानते हैं कि मेरे आश्रितों के बल, वैभव, आयु का विनाश न काल कर सकता है और न किसी का शाप, सिद्धि आदि। मेरे जनों का प्रारब्ध नहीं होता। उनके साथ तो मैं ही क्रीड़ा करता हूँ। मेरी इच्छा ही उनका संचालन करने में समर्थ है।’ ‘अब यदि मैं विशाल यादव कुल को यहाँ छोड़कर ही स्वधाम चला जाऊँ तो आपका कोई कर्म नियम तो इनको प्रभावित नहीं करता। शाप भी मेरे रहते, मेरी इच्छा से ही सक्रिय हो सकता है। मेरे चले जाने पर यह अनियन्त्रित होकर सृष्टि की सब मर्यादा नष्ट कर देंगे।’ ब्रह्माजी ने मस्तक झुका लिया। किसी एक भगवदाश्रित को तो उनके कर्मनियम नियन्त्रित कर ही नहीं पाते, इन लाख-लाख यादवों का सचमुच सृष्टि में नियन्त्रण कौन करेगा ? ये क्या करेंगे इसका क्या ठिकाना है। ‘महर्षियों के शाप का मैंने अनुमोदन कर दिया है।’ श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया-‘अब उसके सार्थक होने का समय आ गया है। उसे निमित्त बनाकर इन सबको इनके दिव्यधाम भेजकर तब मैं धरा का त्याग करूँगा।’ ब्रह्मादि सबको आश्वासन प्राप्त हुआ। वे प्रणाम करके अपने - अपने धाम विदा हुए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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