श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
26. असुर-वज्रनाभ
महर्षि कश्यप की पत्नी दिति की सन्तान दैत्य, दनु की सन्तान दानव और निकषा की सन्तान है नैकषेय- राक्षस ये सब इस परम्परा को स्वीकार करते हैं। इनमें प्रायः संघर्ष नहीं होता। ये तीनों ही कुल भले सुरों के शत्रु हों, हैं, देववर्ग में ही और इनको जन्म से वे सब सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं जो देवताओं को। अन्तर केवल यह है कि ये क्रूर-उग्र प्रकृति हैं तथा स्थूल ऐन्द्रिक भोग में आस्था रखते हैं। सुरों के समान सूक्ष्म भोग से ही सन्तुष्ट नहीं होते। भगवान ब्रह्मा की एक कठिनाई है। कोई भी तप की पराकाष्ठा करने लगे- सतोगुण की भी बहुत अभिवृद्धि सृष्टि में व्यतिक्रम उपस्थित करती है। अतः उसे वरदान देकर तप से निवृत्त करना आवश्यक होता है। असुर महाप्राण हैं, वे तप करने लगते हैं तो वहाँ भी अति कर देते हैं और उनकी एक ही धुन है- 'अमरत्व, किसी से हारें नहीं।' सृष्टिकर्ता के लिए उन्हें तप से निवृत्त करना तत्काल आवश्यक होता है। कोई उनके वरदान का दुरुपयोग करता है तो सृष्टि के पालन-संरक्षण का दायित्व जिन श्रीहरि पर है, वे उसे सम्हाल लेंगे। दनु के पुत्र वज्रनाभ दानव ने मेरु के शिखर पर उग्र तप प्रारम्भ किया। अन्ततः ब्रह्मा जी को आना पड़ा उसके समीप। वे हंस-वाहन पधारे और बोले- 'वरं ब्रूहि।' दानव ने प्रणिपात किया उन्हें, और माँगा- 'मैं कभी मरूँ नहीं।' ब्रह्मा जी ने कहा- 'वत्स! यह सम्भव नहीं है। द्विपरार्ध पूर्ण होने पर मुझे भी मरना है। नित्य जीवन देह को नहीं मिलता। तुम कुछ और माँगो।' 'देवता, दानव, यक्ष, राक्षस कोई मुझे मार न सके।' वज्रनाभ ने कहा- 'साथ ही मेरे लिए आप एक ऐसा नगर प्रदान करें जो मेरे नाम से प्रसिद्ध हो। सम्पूर्ण रत्नों से ही बना हो। वहाँ सबके लिए सब सुख सुविधा की सामग्री अनायास सदा सुलभ रहें और मेरी इच्छा-अनुमति के बिना वायु भी उस नगर में प्रवेश न कर सके।' 'एवमस्तु।' जो अपने संकल्प से पूरी सृष्टि की रचना करते हैं, उन्हें एक महानगर- वह कैसा भी हो, संकल्पित करने में क्या कठिनाई थी। वरदान देकर सृष्टिकर्ता चले गये। वज्रनाभ को भूगर्भ में रत्नों से बना वह महानगर मिला। उसका नाम वज्रपुर रखा उसने। दैत्य, दानव, राक्षस आकर उसके आश्रम में उस नगर में बस गये। वज्रनाभ को शीघ्र पता लग गया कि 'सबके लिये सर्वदा सब सुख-सुविधा की सामग्री अनायास सुलभ रहे'- यह वरदान माँगकर उसने मूर्खता की है। भोग में रस तो उसके प्राप्त करने में होने वाले श्रम से-संघर्ष से आता है। दुर्लभत्व से आकर्षण उत्पन्न होता है। अत्यन्त सुलभ भोग अपना आकर्षण खो देता है। वज्रपुर के निवासियों के लिए सब भोग अनायास हुए तो उनके लिए भोगों में कोई आकर्षण ही नहीं रहा। अब वे आलस्य में सोते रहते अथवा परस्पर ही अकारण संघर्ष करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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