श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
21. पौण्ड्रक वासुदेव
पुण्ड्र देश[2] के नरेश ने अपने पुत्र का नाम पौण्ड्रक रखा था। पिता को पुत्र के सम्बन्ध में कोई भ्रम नहीं था; किन्तु पौण्ड्रक श्यामवर्ण था, बड़े-बड़े अरुणाभ नेत्र थे उसके लम्बी भुजाएँ, सुपुष्ट दीर्घकाय- बचपन में साथी बालकों ने उसे चिढ़ाने के लिये कहना प्रारम्भ किया- 'आप ही वासुदेव हैं। क्या सुन्दर कृष्णवर्ण है आपका।' जो बात चिढ़ाने के लिये प्रारम्भ हुई थी, वह पौण्ड्रक के मन में घर करती गयी। वह अपने को वासुदेव समझने लगा। पिता ने उसे हस्तिनापुर भेजा धनुर्वेद की शिक्षा के लिये और वहाँ द्रोणाचार्य से उसने लगकर प्रशिक्षण प्राप्त किया। उसकी तन्मयता, योग्यता, सेवा से संतुष्ट होकर द्रोणाचार्य ने उसे ब्रह्मास्त्र तक प्रदान किया। हस्तिनापुर में भीष्म पितामाह, द्रोणाचार्य, विदुर आदि के मुख से बार-बार उसने श्रीकृष्णचन्द्र को भगवान वासुदेव सुना। वहाँ वह विरोध करने की स्थिति में नहीं था; किन्तु उसके मन में वहीं श्रीकृष्ण-द्वेष बद्धमूल हो गया। वह बार-बार सोचता- 'वह गोपकुमार वासुदेव बन बैठा! वासुदेव भगवान तो मैं हूँ।' वहीं उसने सुना और पढ़कर भी जाना कि भगवान वासुदेव चतुर्भुज होते हैं। उनके हाथ में पांचजन्य शंख, सुदर्शन चक्र, कौमोदकी की गदा और कमल रहता है। कण्ठ में कौस्तुभ मणि धारण करते हैं। वक्षस्थल पर श्रीवत्स और भृगुलता का चिह्न है। उनके रथ की ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न रहता है। पौण्ड्रक का अंहकार उसे यह मानने देने को प्रस्तुत नहीं था कि भगवान नारायण अवतीर्ण होते हैं तो उनके आयुध, आभरण तथा रूप भी आता है। उसे लगता था कि यह सब यहाँ बनाया जाता है और श्रीकृष्ण ने भी सब बनाया है उसी की भाँति जानकारी प्राप्त करके। पौण्ड्रक शिक्षा प्राप्त करके लौटा तो पिता परलोकवासी हो गये। वह युवराज से महाराज हो गया। उसे पूरी स्वाधीनता मिल गयी। उसने दो कृत्रिम भुजायें लगवा लीं और शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करके ही दूसरे किसी के भी सम्मुख आने का नियम कर लिया। पौण्ड्रक को अपनी ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न बनाने में और कण्ठ में कौस्तुभाकार लाल मणि धारण करने में कोई कठिनाई नहीं थी। वक्षस्थल पर वह अंगराग से श्रीवत्स तथा भृगुलता का चिह्न बनाये रहता थ। दारुक के रंग रूप का सारथि ढूँढ़ा उसने और उसका नाम 'दारुक' रखा। अपने रथ में वैसे ही श्यामकर्ण अश्व जुड़वाता। उनके नाम भी वही मेघ-पुष्प, वलाहकादि रख लिये। अपनी तलवार को वह 'नन्दक' कहता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रृगाल वासुदेव के वध का वर्णन 'भगवान वासुदेव' में किया गया है।
- ↑ चरणाद्रि- चुनार के समीप के प्रदेश
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