श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
9. कालिन्दी-कल्याण
मैंने निःसंकोच कह दिया- 'भैया! तुम ठीक कहते हो कि मैं पति चाहती हूँ; किन्तु भगवान नारायण को छोड़कर दूसरे को मैं पति के रूप में स्वीकार नहीं करूँगी। मैं उस गगन में स्थित भगवान आदित्य की कन्या हूँ। पिता ने इस प्रवाह में मेरे लिये संकल्प गृह बना दिया है। उसमें रहकर मैं तपस्या में लगी हूँ। देखें, वे सर्वलोकेश्वरेश्वर भगवान मुकुन्द कब प्रसन्न होते हैं इस किंकरी पर।' 'बहिन! वे आज अभी प्रसन्न होंगे।' उन पुरुष श्रेष्ठ ने मुझे भगिनी स्वीकार कर लिया और लौटते हुये कहते गये- 'अब जल में मत जाना। मैं उन्हें लिये आ रहा हूँ।' सचमुच वे इन्हें साथ लिये आये। इन इन्दीश्वर सुन्दर, कमललोचन, चतुर्भुज- श्रीवत्सवक्षालंकृत को भी क्या परिचय देने या पहिचानने की आवश्यकता थी। मैं अपने इन आराध्य के चरणों में गिर पड़ी। उठाकर इन्होंने मुझे रथ पर बैठा लिया और सखा के साथ इन्द्रप्रस्थ ले आये।' कालिन्दी की कथा ने सबको आनन्दित किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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